कुछ गांव लापोड़िया के गोचर विकास के काम को खुद देखने आए तो कुछ जगह लापोड़िया के लोग स्वयं गए। अनुभवों का आदान-प्रदान हुआ और इस तरह यह काम धीरे-धीरे अन्य गांवों में फैल रहा है। लेकिन केवल चौका बनाने भर से गोचर नहीं संभल पाता। इसकी सफलता का रहस्य समाज के संगठन में छिपा हुआ है। स्वार्थ से ऊपर उठे बिना ऐसा संगठन बन नहीं पाता।
एक गांव में जब गोचर पर काम शुरू हुआ तो वहां के थोड़े से लोगों ने इसका विरोध किया। इन लोगों ने राजनीति और जाति दोनों का खुलकर उपयोग किया। मंत्री से लेकर नीचे तक के अधिकारियों को फ़ोन करवाया कि कुछ 'गुंडे' गोचर पर क़ब्ज़ा करने के लिए गोचर विकास का भ्रामक कार्यक्रम लेकर आए हैं। फिर यह मामला अदालत तक भी गया, लेकिन अंत में लोक संगठन काम आया। उसकी नैतिक ताक़त के आगे ये लोग झुक गए। जिनकी जीत हुई, वे हारे हुए लोगों के सामने और अधिक झुक गए। इस विनम्रता ने हार-जीत का अंतर मिटा दिया। ऐसे प्रसंग यह भी बताते हैं कि गांव को सुधारने की योजनाओं में सरकार को बिल्कुल निष्पक्ष रह कर काम करना चाहिए। आरोप सामने आएं तो धीरज के साथ उनकी जांच की जानी चाहिए और गोचर जैसे मामलों में अपनी क़ानूनी ज़िम्मेदारी जाति और राजनीति से ऊपर उठकर निभानी चाहिए।
सिर्फ़ यहां ही नहीं, पूरे देश में गोचर के साथ अच्छी मानी गई सरकारों ने भी कई तरह की गड़बड़ियां की हैं। वोट की राजनीति गांव के भूमिहीन और दलित का प्रश्न उठाकर गोचर की ज़मीन खेती के लिए बांटकर वाहवाही लूटती है। देश के नेतृत्व को भी समझना चाहिए कि कमज़ोर माने गए वर्ग के पास जो बकरियां हैं, जो पशु हैं आख़िर वो कहां चरने जाएंगे? लापोड़िया और उसके आसपास के गांवों का यह पक्का अनुभव है कि गोचर विकास का लाभ ऐसे परिवारों को भी भरपूर मिलता
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