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गोचर का प्रसाद बांटता लापोड़िया


में समाता जाता है। इस तरह यह भूजल को उठाता है, सूखी धरती का पेट भरता है उसकी प्यास बुझाता है और फिर अच्छी नमी के कारण गोचर में घास की जाजम बिछाता है। इससे गांव के पास अकाल से लड़ने के लिए पानी भी रहता है और पशुओं के लिए पर्याप्त घास भी।

आज लापोड़िया गांव में कोई 200 घरों के बीच बस्ती और उनके खेतों में 103 कुएं हैं। 6 साल के अकाल के बाद भी आज इनमें से हर कुएं में पर्याप्त मात्रा में पानी उपलब्ध है। इस छिपे ख़ज़ाने का उपयोग लापोड़िया गांव फ़सल उगाने के अलावा अपने पशुओं के लिए हरा चारा पैदा करने के काम में भी लगा रहा है। अकाल के जिन दिनों में आसपास के दूसरे गांव में बाहर से सूखा चारा लाना पड़ा है या अपने पशुओं को राहत शिविरों में भेजना पड़ा है, वहीं लापोड़िया का लगभग हर घर अपने खेत के एक छोटे-से टुकड़े पर, आधा बीघा, एक बीघा पर अपने पशुओं के लिए हरा चारा उगाता है। खेत के इस टुकड़े की सुरक्षा के लिए कोई चार-पांच फुट ऊंची मिट्टी की एक दीवार भी बनाई जाती है। इस चारे को उगाने के लिए पानी उनके कुएं से आता है। साधारण खेतों में अकाल के बीच खड़ी फ़सल का हरा रंग देखकर जो अचरज होता है, उसी खेत के साथ मिट्टी के किलेनुमा टुकड़े में दुगुने गहरे रंग का चारा देखकर वह अचरज बिल्कुल चौगुना हो जाता है।

अपने गोचर और तालाबों में श्रम का पसीना बहाकर जो पानी रोका गया है, उसने लापोड़िया को बहुत हद तक हरा बना दिया है। अब इस हरियाली का रंग लोगों के मन पर भी दिखने लगा है। अब उन्हें लगता है कि उन्होंने लापोड़िया में इन सब कामों को करने के लिए कुछ वर्ष पहले जो संघर्ष किया था, जो आंदोलन चलाया था वही सब दूसरे गांवों में करना ज़रूरी है। गांव के मन को हरा बनाने का काम आनंद और सहयोग की नींव पर खड़ा होना चाहिए। आज लापोड़िया के लोग गोचर

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