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पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/५५

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अनुपम मिश्र


कई बातों का ध्यान रखते हैं। जिस तरह से हम लोग एक-सा भोजन खाते-खाते तंग आ सकते हैं, इसी तरह पशु भी हैं। इन्हें वर्ष भर अलग-अलग ढंग से चारा देने का पूरा कैलेंडर गांव समाज ने व्यवस्थित रूप से बनाया था। गोचर और चौइली तथा बीड़ के अलावा किसानों के अपने घरों में, बाड़ों में 'भुखारा' और 'भुरिया' बनाया जाता रहा है। भुखारा कोई सात-आठ हाथ चौड़ा इतना ही ऊंचा और 50-70 हाथ लंबा एक कच्चा ढांचा होता है। इसमें तीस-चालीस ट्रॉली चारा वर्ष भर के लिए जमा रखा जाता है। एक ट्रॉली में कोई 40 मन आता है। भुखारा में कटा हुआ चारा जमा किया जाता है। यह गुवार, बाजरा, ज्वार और गेहूं की फ़सलों के डंठल और भूसे से बनता है। इस ढांचे में लंबाई वाले हिस्से में खिड़कीनुमा दो झरोखे होते हैं, जिन्हें खोलकर ज़रूरत के अनुसार चारा निकाला जाता है। शेष चारा पूरे वर्ष भर सुरक्षित रखा रहता है। भुरियां में साबुत चारा एकत्र किया जाता है। इसका आकार कोई 25 फुट ऊंचा और 15 फुट चौड़ा भौरेनुमा होता है। इसमें कटी फ़सल के डंठल इस विशेष ढंग से जमाए जाते हैं कि बिल्कुल खुले आकाश के नीचे रखे रहने के बाद भी यह चारा भीगता नहीं, सड़ता नहीं। ऊपर से लेकर नीचे तक की चिनाई उसी चारे से होती है। फिर भी एक बूंद पानी भीतर नहीं जाता है। इस व्यवस्था के माध्यम से पशुओं को पूरे साल भर तक सार्वजनिक स्थानों के अलावा घर से भी पौष्टिक खुराक मिलती रहती थी।

ऊपर बताए गए ढांचों के अलावा एक और ढांचा बनाया जाता था। उसका नाम था 'बागर'। यह ढांचा आज़ादी से पहले तक चलन में था। फिर ठिकानेदारी, रियासतों के राज जाने के बाद यह भी चलन से हट गया।

बागर की सुरक्षा के लिए बाड़ लगाई जाती थी। इसमें कोई पच्चीस हाथ चौड़ा चालीस हाथ लंबा और 15 हाथ ऊंचा घास का ढेर होता था।

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