इसलिए इसे गांव की मुख्य आबादी से थोड़ा हटकर बनाया जाता था-कभी आग आदि की दुर्घटना हो ही जाए तो बस्ती पर उसका बुरा असर न पड़े। इस व्यवस्था में भी कोई रखवाला नहीं होता था और यह भी किसी की निजी संपत्ति नहीं मानी जाती थी। पूरा गांव चलते-चलते रखवाली करता था।
बागर एक तरह का चारा बैंक, कोष होता था जो संकट के समय में खुल जाता था। तब इसमें से जो जितना चारा लेता, उतना ही चारा अच्छी फ़सल आने पर इस कोष में वापस भर देता था। बागर के कोष से चारा देते समय तराज़ू का उपयोग नहीं होता था। यह गांव की अपनी व्यवस्था थी और अपने लोगों के लिए थी। फिर भी चारा लेते और देते समय एक मोटा हिसाब रखा जाता था। इसके लिए पगड़ी का उपयोग होता था। प्रति परिवार सात हाथ का बंडल पगड़ी में बंध जाए-इतना चारा दिया जाता था। और ऐसे ही सात हाथ की पगडी में जितना बंडल बंधता है, उतना वापस हो जाता था। अकाल से लड़ने के लिए गांव की इस व्यवस्था में, तरकश में कई तीर होते थे। जैसे चारे की व्यवस्था थी, उसी तरह संकट के दौर को पार करने के लिए अनाज का भंडार भी जमा किया जाता था। इसके लिए खाई नामक एक ढांचा बनाया जाता था। यह व्यवस्था भी रियासत के बाद पूरी तरह से टूट चुकी है। खाई एक तरह का सूखा कुआं होता था। इसमें अनाज का भंडार सुरक्षित रखा जाता था। हरेक खाई कोई 10 से 15 हाथ गहरी और 7 हाथ के व्यास की गोलाई लिए हुए होती थी। यह गोलाई नीचे से ऊपर आते समय थोड़ी कम हो जाती थी। पूरा अनाज भर जाने पर इसे मिट्टी के घोल से ढक्कन बनाकर बंद कर दिया जाता था। सभी खाइयां थोड़े ऊंचे स्थानों पर बनाई जाती थीं, ताकि बरसात की नमी और पानी इनमें न जा पाए। खाई के भीतर बहुत सावधानी से गोबर और मिट्टी से लिपाई की जाती थी। इसमें कुछ भाग राख का भी होता था ताकि अनाज में कीड़े न लगें।