पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/५७

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अनुपम मिश्र

लापोड़िया गांव में आज़ादी से पहले तक बीस खाइयां थीं। अच्छी फ़सल आने पर हर घर से इसमें एक निश्चित मात्रा में अनाज डालकर बंद कर दिया जाता था। जब तक गांव की सभी खाइयां भर नहीं जाती थीं, तब तक गांव से एक दाना भी बाहर बेचा नहीं जा सकता था। इन खाइयों में तीन वर्ष तक अनाज सुरक्षित रखा जाता था। यदि इस अवधि में अकाल नहीं पड़े तो खाई खोलकर उसका अनाज वापस किसानों में वितरित हो जाता था। यदि अकाल आ ही गया तो ये खाइयां उस संकट को सहने के लिए खोल दी जाती थीं। अकाल का संकट आने पर खाई खोलने का निर्णय गांव के दो पटेल और ठिकानेदार की एक छोटी-सी बैठक में तुरंत लिया जाता था। उसके बाद गांव के घरों की ज़रूरत देखते हुए एक के बाद एक खाई खुलती जाती थी और अनाज का वितरण होता जाता था। एक मोटे हिसाब से प्रति परिवार प्रति माह कोई एक मन अनाज बांटा जाता था। अकाल समाप्त होने पर अच्छी पैदावार आने पर इन्हीं परिवारों से चालीस किलो के बदले 50 किलो अनाज वापस लेकर फिर से खाई में सुरक्षित रख दिया जाता था।

गांव की बीस खाइयों में से केवल चार खाई ठिकानेदार के गढ़ के भीतर थीं। शेष 16 गांव के सार्वजनिक स्थानों पर बनी थीं। इन सोलह खाइयों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी उनके सामने पड़ने वाले घरों की होती थी। ये परिवार भी सभी जातियों के और सभी तरह की आर्थिक स्थिति के होते थे। एक खाई मंदिर के सामने थी और उसकी रखवाली पुरोहित खुद करते थे। भगवान की पूजा में भक्तों की पूजा, गांव की पूजा भी शामिल रहती थी। गढ़ के भीतर चार खाई इसलिए रखी जाती थीं कि कहीं किसी हमले में गांव की खाइयों में आग लगा दी जाए तो कम-से-कम गढ़ की चार खाई सुरक्षित रह सकेंगी। आज भारतीय खाद्य

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