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गोचर का प्रसाद बांटता लापोड़िया


निगम जैसी व्यवस्था गांव का अनाज गांव से बाहर निकालकर कहीं दूर शहरों में जमा करता है और संकट के समय उसे ठीक समय पर गांवों में वापस नहीं कर पाता। खाई खाद्य सुरक्षा का बेहतर प्रबंध था।

आज 200 घरों का छोटा-सा लापोड़िया गांव पशुपालन और किसानी के बीच टूट चुके इन संबंध को जोड़ने का एक बड़ा काम कर रहा है। 6 साल के अकाल के बाद आज इस गांव में दूध का खूब उत्पादन हो रहा है। इसमें भी संतुलन बनाकर रखा गया है। अपने घर की ज़रूरत का दूध बचा लिया जाता है। शेष मात्रा जयपुर की डेयरी को दी जाती है। अकाल के बाद भी लापोड़िया में जमा होने वाला दूध डेयरी के अन्य केंद्रों से मात्रा में भी ज़्यादा है और गुणवत्ता में भी। लापोड़िया के पास शुद्ध चारा है। यहां ज्वार, बाजरा, ग्वार और हरे चारे के उत्पादन में किसी भी प्रकार की रासायनिक खाद और कीटनाशक बिल्कुल नहीं डाला जाता। इसलिए आज शुद्ध दूध है, अच्छी फ़सल है और आज लगभग हर घर के पास भुरियां हैं। कुछ के पास एक से भी ज़्यादा। इन भुरियों में फ़सल कटाई के बाद बचे डंठल चारे की तरह संग्रह किए जाते हैं और इनका उपयोग अगले किसी संकट के दौर में होता है।

लापोड़िया ने तालाबों के साथ-साथ अपना गोचर भी बचाया है और इन दोनों ने मिलकर-यानी तालाब और गोचर ने लापोड़िया को बचा लिया है। आज गांव की प्यास बुझ चुकी है। छह साल के अकाल के बाद भी यहां संतुष्ट धरती में चारों तरफ़ हरियाली है। कोयल की गूंज है तो साधारण-सी मानी जाने वाली चिड़ियों की असाधारण चहचहाहट है।

लापोड़िया गांव में किसी भी सड़क, गली या चौराहे का नाम किसी जन-नायक के नाम पर नहीं मिलेगा। गांव में कहीं भी गांधीजी की मूर्ति नहीं है। लेकिन आज पूरा गांव गांधीजी के आदर्शों का मूर्तरूप बनने का

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