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अनुपम मिश्र


इस बार की बाढ़ ने उत्तर बिहार को कुछ अभिशप्त इलाक़े की तरह छोड़ दिया है। सभी जगह बाढ़ से निपटने में अव्यवस्था की चर्चा हुई है। अव्यवस्था के कई कारण भी गिनाए गए हैं–वहां की असहाय ग़रीबी आदि। लेकिन बहुत कम लोगों को इस बात का अंदाज़ होगा कि उत्तर बिहार एक बहुत ही संपन्न टुकड़ा रहा है इस प्रदेश का। मुजफ़्फ़रपुर की लीचियां, पूसा ढोली की ईख, दरभंगा का शाहबसंत धान, शकरकंद, आम, चीनिया केला और बादाम और यहीं के कुछ इलाक़ों में पैदा होने वाली तंबाकू, जो पूरे शरीर के नसों को हिला कर रख देती है। सिलोत क्षेत्र का पतले-से-पतला चूड़ा, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह नाक की हवा से उड़ जाता है, उसके स्वाद की चर्चा तो अलग ही है। वहां धान की ऐसी भी किस्में रहीं हैं जो बाढ़ के पानी के साथ-साथ खेलती हुई ऊपर उठती जाती थीं और फिर बाढ़ को विदा कर खलिहान में आती थीं। फिर दियारा के संपन्न खेत।

सुधी पाठक इस सूची को न जाने कितना बढ़ा सकते हैं। इसमें पटसन और नील भी जोड़ लें तो आप 'दुनिया के सबसे बड़े' यानी लंबे प्लेटफ़ॉर्म पर अपने आप को खड़ा पाएंगे। एक पूरा संपन्न इलाक़ा उत्तर बिहार आज दयनीय स्थिति में क्यों पड़ गया है? हमें सोचना चाहिए। सोनपुर का प्लेटफ़ॉर्म। ऐसा कहते हैं कि यह हमारे देश का सबसे बड़ा प्लेटफ़ॉर्म है। यह अंग्रेजों के समय में बना था। क्यों बनाया गया इतना बड़ा प्लेटफ़ॉर्म? यह वहां की संपन्नतम चीजों को रेल से ढोकर देश के भीतर और बाहर ले जाने के लिए बनाया गया था। लेकिन आज हम इस इलाक़े की कोई चिंता नहीं कर रहे हैं और उसे एक तरह से लाचारी में छोड़ बैठे हैं।

बाढ़ आने पर सबसे पहला दोष तो हम नेपाल को देते हैं। नेपाल एक छोटा-सा देश है। बाढ़ के लिए हम उसे कब तक दोषी ठहराते रहेंगे? कहा जाता है कि नेपाल ने पानी छोड़ा, इसलिए उत्तर बिहार बह गया। यह देखने लायक़ बात होगी कि नेपाल कितना पानी छोड़ता है। मोटे तौर

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