ऐसी नदियों में एक है–खिरोदी। कहा जाता है कि इसका नामकरण क्षीर अर्थात दूध से हुआ है क्योंकि इसमें साफ़ पानी बहता है। एक नदी जीवछ है, जो शायद जीवात्मा या जीव इच्छा से बनी होगी। सोनबरसा भी है। इन नदियों के नामों में गुणों का वर्णन देखेंगे तो किसी में भी बाढ़ से लाचारी की झलक नहीं मिलेगी। कई जगह लालित्य है इन नदियों के स्वभाव में। सुंदर कहानी है मैथिली के कवि विद्यापति की। कवि जब अस्वस्थ हो गए तो उन्होंने अपने प्राण नदी में ही छोड़ने का प्रण किया। कवि प्राण छोड़ने नदी की तरफ़ चल पड़े, मगर बहुत अस्वस्थ होने के कारण नदी किनारे तक नहीं पहुंच सके। कुछ दूरी पर ही रह गए तो उन्होंने नदी से प्रार्थना की कि हे मां, मेरे साहित्य में कोई शक्ति हो, मेरे कुछ पुण्य हों तो मुझे ले जाओ। कहते हैं कि नदी ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और कवि को बहा ले गई।
नदियां विहार करती है, उत्तर बिहार में। वे खेलती हैं, कूदती हैं, यह सारी जगह उनकी है। इसलिए वे कहीं भी जाएं उसे जगह बदलना नहीं माना जाता था। उत्तर बिहार में समाज का एक सरल दर्पण साहित्य रहा होगा तो दूसरा तरल दर्पण नदियां थीं। इन असंख्य नदियों में वहां का समाज अपना चेहरा देखता था और नदियों के चंचल स्वभाव को बड़े शांत भाव से देह में, अपने मन और अपने विचारों में उतारता था। इसलिए कभी वहां कवि विद्यापति जैसे सुंदर क़िस्से बनते तो कभी फुलपरास जैसी घटनाएं रेत में उकेरी जाती। नदियों की लहरें रेत में लिखी इन घटनाओं को मिटाती नहीं थीं–हर लहर इन्हें पक्के शिलालेखों में बदलती थी। ये शिलालेख इतिहास में मिलें न मिलें लोगों के मन में, लोक स्मृति में मिलते थे। फुलपरास का क़िस्सा यहां दोहराने लायक़ है।
कभी भुतही नदी फुलपरास नाम के एक स्थान से रास्ता बदल कर कहीं और भटक गई। तब भुतही को वापस बुलाने के लिए अनुष्ठान किया
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