उन्नीसवीं शताब्दी तक वहां के बड़े-बड़े तालाबों के बड़े-बड़े किस्से चलते थे। चौर में भी बाढ़ का अतिरिक्त पानी रोक लिया जाता था। परिहारपुर, भरवारा और आलापुर आदि क्षेत्रों में दो-तीन मील लंबे-चौड़े तालाब थे। धीरे-धीरे बाद के नियोजकों के मन में यह आया कि इतनी जलराशि से भरे बड़े-बड़े तालाब बेकार की जगह घेरते हैं-इनका पानी सुखा कर ज़मीन लोगों को खेती के लिए उपलब्ध करा दें। इस तरह हमने दो-चार खेत ज़रूर बढ़ा लिए, लेकिन दूसरी तरफ़ शायद सौ-दो-सौ खेत हमने बाढ़ को भेंट चढ़ा दिए। ये बड़े-बड़े तालाब वहां बाढ़ का पानी रोकने का काम करते थे।
आज अंग्रेज़ी में रेन वॉटर हारवेस्टिंग शब्द है। इस तरह का पूरा ढांचा उत्तर बिहार के लोगों ने बनाया था-वह 'फ़्लड वॉटर हारवेस्टिंग सिस्टम' था। उसी से उन्होंने यह खेल खेला था। तब भी बाढ़ आती थी, लेकिन वे बाढ़ की मार को कम-से-कम करना जानते थे। तालाब का एक विशेषण यहां मिलता है-नदिया ताल। मतलब है-वह वर्षा के पानी से नहीं, बल्कि नदी के पानी से भरता था। पूरे देश में वर्षा के पानी से भरने वाले तालाब मिलेंगे। लेकिन यहां हिमालय से उतरने वाली नदियां इतना अधिक पानी लेकर आती हैं कि नदी से भरने वाला तालाब बनाना ज़्यादा व्यावहारिक होता था। नदी का पानी धीरे-धीरे कहीं-न-कहीं रोकते-रोकते उसकी मारक क्षमता को उपकार में बदलते-बदलते आगे गंगा में मिलाया जाता था।
आज के नए लोग मानते हैं कि समाज अनपढ़ है, पिछड़ा है। नए लोग ऐसे दंभी है। उत्तर बिहार से निकलने वाली बाढ़ पश्चिम बंगाल होते हुए बांग्लादेश में जाती है। एक मोटा अंदाज़ा है कि बांग्लादेश में कुल जो जलराशि इकट्ठी होती है उसका केवल दस प्रतिशत उसे बादलों से मिलता है। नब्बे फ़ीसदी उसे बिहार, नेपाल और दूसरी तरफ़ से आने वाली
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