पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
अनुपम मिश्र


इस बहस में कौन कितनी आहुति देगा और उसके लाभ का बंटवारा किस अनुपात में मिलेगा, 33 बरस बीत गए। सन् 1946 में शुरू हुई बहस में तीनों राज्यों के नेताओं और विशेषज्ञों की दो पीढ़ियां बदल गईं पर प्रकृति को आर्थिक तराज़ू पर नक़ली बांट रख कर तौलने की नज़र नहीं बदली। इनकी तीसरी पीढ़ी को भी यही लगता रहा कि कमबख्त नर्मदा हमसे बिना पूछे 3454 अरब घन मीटर पानी खंबात की खाड़ी में बहा ले जा रही है। इस पर बड़े-बड़े बांध बना लें तो 2500 से 3300 मेगावाट बिजली मिल जाएगी और कोई 23 लाख हैक्टेयर में सिंचाई हो जाएगी। लेकिन इतने लाभकारी यज्ञ की कीमत बहुत थी। यहां डूबने वाली क़ीमती सवा लाख हेक्टेयर ज़मीन और वन तथा कोई डेढ़ लाख लोगों की बात नहीं हो रही। क़ीमत यानी वह रुपया जो इस सपने को आकार देता। उन दिनों के सस्ते ज़माने में भी यह कीमत 600 से 1000 करोड़ रुपया थी जो आज शायद 3800 करोड़ रुपए के आसपास झूल रही है। झगड़ रहे तीनों राज्यों में से किसी की भी जेब में इतना रुपया नहीं था कि वे अपने दम पर या केंद्र की मदद से ये बांध बना पाते। बहुत कम लोगों को याद होगा कि 1967 में मध्यप्रदेश के 31 संसद सदस्यों ने इंदिरा गांधी से नर्मदा घाटी योजना को भारत-सोवियत व्यापार में शामिल करने का आग्रह किया था।

सबसे विवादास्पद बांध सरदार सरोवर (गुजरात) को लेकर सन् 67 से 1974 तक मध्यप्रदेश और गुजरात सरकार के बीच जो ऊलजलूल बयानबाज़ी और झगड़े हुए वे अपने आप में एक छोटे-मोटे महाभारत की याद दिलाते हैं। 1969 में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल ने ज़ोर-शोर से कहा था कि गुजरात में नर्मदा पर बनने वाले बांध से मध्यप्रदेश की एक इंच ज़मीन भी डूब में नहीं आएगी। (बाद में यह आंकड़ा एक इंच से बढ़कर 27 हज़ार एकड़ उम्दा कृषि में बदला गया)

58