इसी दौरान गुजरात और मध्यप्रदेश में अपने-अपने बांधों की ऊंचाई बढ़ाकर अधिक बिजली बना लेने की जैसे होड़ लग गई। केवल बिजली का बहाना थोड़ा शर्मनाक लग सकता था इसलिए दोनों राज्यों ने अपने-अपने किसानों के 'हितों' को भी बढ़ाना शुरू कर दिया। पर इन दोनों बांधों की ऊंचाई जितनी बढ़ती उतनी अधिक कीमती ज़मीन और वन भी उनकी डूब में आते इसलिए बांधों की ऊंचाई का सारा विवाद नीचता की हद तक उतरता गया। लगता है कुछ पुण्याई कमाने के ख्याल से ही उस समय यह भी जोड़ दिया गया कि अगर बांध ऊंचा बना तो उसमें एक लंबी नहर निकाल कर राजस्थान जैसे 'प्यासे' राज्य को भी कुछ पानी दे दिया जाएगा।
तीन राज्यों के मुख्यमंत्री और उनके अधिकारी व इंजीनियर आखिर कब तक झगड़ते। सन् 73 में सारा विवाद इंदिरा गांधी को सौंपा गया। वे हाथ जो इस देश की सारी समस्याओं का हल खोजने के लिए लगातार मज़बूत किए जाते रहे, नर्मदा के मामले में बेहद कमजोर साबित हुए। इंदिरा गांधी हल नहीं खोज सर्की तो उन्होंने इस विवाद को सन् 74 में एक पंचाट को सौंप दिया। यहां कुछ पुरानी बातें एक बार फिर दोहरा लें। 74 से बहुत दूर नहीं था सन् 75 की जून में लगा आपातकाल। सारे झगड़े समाप्त हो गए। पंचाट चुपचाप काम करती रही।
आपातकाल हटा और केंद्र तथा इन राज्यों में आई जनता पार्टी सरकार। और कुछ ही समय बाद सन् 79 में पंचाट ने अपना फैसला दिया। सबसे विवादास्पद बांध सरदार सरोवर की ऊंचाई उसने 455 फुट तय की। तब मध्यप्रदेश में विपक्ष की बेंच पर बैठी इंदिरा कांग्रेस उछलकर इन बांधों पर टूट पड़ी। पूरे फैसले को राज्य के लिए अभिशाप बताया गया। पर जनता सरकार चली ही कितने दिन। 80 में वापस शासन में
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