पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/८१

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अनुपम मिश्र


44 पन्नों की एक रपट बना कर पूछा था कि इतने बड़े बांधों की ये योजनाएं विकास के लिए हैं या विनाश के लिए। अब तक चित्रित किया जा रहा लाभ रपट के मुताबिक कोई शुभ संकेत नहीं देता था और स्वीकार की गई कुछ हानियां मात्रा में बहुत ज़्यादा हो सकती थीं और निश्चित ही अशुभ संकेत देती थी। फिर मई 85 में लंदन की एक संस्था 'सर्वाइवल इंटरनेशनल' ने गुजरात में बन रहे सरदार सरोवर की डूब में आने वाले आदिवासियों का पक्ष रखते हुए विश्व बैंक को याद दिलाया कि आदिवासियों के पुनर्वास में बरती जा रही उपेक्षा बैंक की अपनी आचार संहिता के विरुद्ध जा रही है। फ़िलहाल कमज़ोर नायक के बदले बलवान खलनायक की आचार संहिता की याद दिलाना शायद ज़्यादा व्यावहारिक था।

फिर नर्मदा घाटी के विकास से जुड़े सबसे बड़े अधिकारी नर्मदा प्लानिंग एजेंसी के अध्यक्ष सुशीलचंद्र वर्मा ने देश में पहली बार उन सब बातों को सार्वजनिक बनाया जो अब तक बने हर बांध में वहां के लोगों पर कहर ढाती हैं: जान बूझ कर ठीक से सर्वे नहीं होता, बांध के सरोवर में डूबने वाले इलाक़ों की ईमानदारी के साथ जानकारी नहीं दी जाती, पूरी कोशिश की जाती है कि मुआवजे के मामले में सरकारें सस्ते में निपट जाएं आदि। वर्मा ने ख़ुद बहुत दुख के साथ कहा कि नब्बे साल पहले सन् 1894 में अंग्रेज़ों द्वारा बनाया गया भू-अर्जन (भूमि अधिग्रहण) क़ानून ऐसी तमाम योजनाओं में लोगों को लूट कर अपना ख़ज़ाना भरने के लिए था। आज़ादी के बाद भी इस कानून में जो कुछ सुधार हुआ वह सब सरकार के पक्ष में ही था, लोगों के पक्ष में नहीं। वर्मा ने पहली बार सरकारी तौर पर स्वीकार किया कि उत्तर में भाखड़ा से लेकर दक्षिण में बने श्रीशैलम और पोलावरम बांधों से बेघर-बार हुए लोग आज भी दर-दर भटक रहे हैं। इन बांधों का लाभ

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