उठाने वाली सरकारें और लोग इन योजनाओं में डूब गए लोगों की शहादत को भूल चुके हैं। ऐसी योजनाओं में कई परिवारों को ठगा गया और वे हमेशा के लिए बर्बाद हो गए। इन पर अनगिनत जुल्म किए गए जो अब रोशनी में आ रहे हैं। वर्मा जी के इन लेखों को पढ़ने से जो यही लगता है कि अब तक बांध सीमेंट कंक्रीट पर नहीं, अन्याय की नींव पर बांधे गए हैं। उनका कहना है कि "यह परंपरा ब्रिटिश काल से चली आ रही है। ज़ाहिर है कि जिस गैर ज़िम्मेदारी से इन मसलों की तरफ़ देखा जाता था, जनता अब उसे बर्दाश्त नहीं करेगी।" उनके मुंह में घी शक्कर!
डूबने वालों के लिए इतनी संवेदना रखने वाले वर्मा जैसे अधिकारियों के रहते हुए भी नर्मदा घाटी में बंधने जा रहे बांधों में ऐसा कुछ नया नहीं होता दिखता कि ये बांध अन्याय की नींव पर नहीं, केवल सीमेंट की नींव पर खड़े हो सकेंगे। इधर पिछले दिनों ऐसे भी संकेत आने लगे हैं कि नुकसान पाने वाले लोग और इलाकों की तो छोड़िए, लाभ पाने वाले क्षेत्र भी परेशानी में पड़ सकते हैं। बंगलौर के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ साइंस की एक रपट का कहना है कि मध्यप्रदेश में इन बांधों से सिंचित होने वाले क्षेत्र का 40 प्रतिशत भाग (लगभग एक लाख हेक्टेयर) दलदल में भी बदल सकता है। अध्ययन दल ने इस ख़तरे को रोकने के भी कुछ उपाय ज़रूर बताए हैं। इस रपट पर काफ़ी हल्ला मचा है। लेकिन सरकार का कहना है कि इससे घबराने की कोई बात नहीं क्योंकि वह अध्ययन तो खुद सरकार ने बंगलौर को सौंपा था। लगभग यही तर्क विश्व बैंक का है। वह भी कहता है कि पर्यावरण पर लड़ने वाले प्रभावों का यह अध्ययन उसकी शर्त का एक हिस्सा था। इससे चौंकने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन अध्ययन की पहल का श्रेय ले लेने से उसमें छिपे नुकसान के खतरे को टाला नहीं जा सकता।
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