किए नहीं। नर्मदा के किनारे कोटेश्वर के पास बावनगजा तीर्थ है। जो लोग आज से 2031 साल पहले पत्थर की बावन गज़ यानी 156 फ़ुट ऊंची मूर्ति बना सके वे यहां की प्रकृति को पहले विकास के लिए डुबो भी सकते थे। कोई 7000 साल पहले मालवा के पठार में आकर बसे लोगों ने त्रिपुरी, महिष्मती जैसे शक्तिशाली राज्यों की नींव रखी थी। चिकल्दा, झाकड़ा, खेड़, पिपल्दा आदि उनके केंद्र थे। चेटियों गोंड और हैहय वंशों ने नर्मदा के सुवर्ण कछार की समृद्धि से अपने राज्य मज़बूत किए। जिस खंबात की खाड़ी में आज नर्मदा अपना 'सारा जल बर्बाद' कर रही है वही खंबात उस दौर में हमारा सबसे पुराना और विकसित बंदरगाह था। वहां से अरब, इज़राइल और अफ़्रीका के साथ व्यापार होता था।
आज नर्मदा घाटी का इलाका पिछड़ा बता दिया गया है। इसका पिछड़ापन दूर करने के लिए ये बांध कल्याणकारी यज्ञ की तरह प्रचारित किए जा रहे हैं। इन यज्ञों के लिए आहुति चाहिए। ऐसे लोगों की पहले भी कमी नहीं थी जो अपने क्षेत्र की उन्नति के लिए बलिदान हो जाते थे। नर्मदा के बहुत से इलाकों में आज भी 'गाता' मिलेंगे। सिल के आकार के पत्थरों पर उकेरी हुई ये मूर्तियां उन शहीदों की स्मृति के लिए हैं जो अपनी और अपने समाज की शान, आन के लिए मर मिटे। आज भी 'गाता' के पास मेले लगते हैं और हाट सजते हैं। लेकिन नर्मदा के बांधों में शहीद होने वालों की 'गाता' नहीं बनेगी। विस्थापितों के साथ जो अन्याय की परंपरा अंग्रेजों के जमाने से कल तक जारी थी उसे एक अकेले सुशील चंद्र वर्मा कितना बदल पाएंगे? विस्थापित तो भटकेंगे ही और अगर लाभ पाने वाले लोग अनदेखी बातों के कारण उखड़ गए तो? इसलिए कल्याणकारी सरकारें यज्ञ ज़रूरी करें पर उतने ही बड़े जिनमें कोई चूक हो गई तो सिर्फ सरकार की उंगलियां जलें, लोग न जलें पीढ़ियां न झुलसें।
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