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भूकंप की तर्जनी और कुम्हड़बतिया


के बनते थे। तब कागज़ के घर सुन कर अटपटा भी लगता था। धीरे-धीरे इन घरों में बदलाव आया। हर जगह की तरह नई चलती चीज़ों का मोह बढ़ा। सीमेंट के पक्के मकान भी बनने लगे। ऐसे ही दौर में फ्रैंक लायड राइट नाम के एक अमेरिकी वास्तुकार को यहां एक बड़े होटल को बनाने का काम सौंपा गया। उन्होंने बनाया पक्का ही होटल पर उस क्षेत्र में आने वाले भूकंपों का पूरा ख्याल भी रखा-उसे एक दलदली ज़मीन पर खड़ा किया गया था। राइट थे तो वास्तुकार पर कभी उन्होंने वास्तुकला की आधुनिक पढ़ाई नहीं पढ़ी थी, बाकायदा डिग्री भी नहीं थी उनके पास। होटल पूरा नहीं बन पाया था कि भूकंप का एक बड़ा झटका वहां आया। सारा कस्बा ध्वस्त हुआ, पर अनबना होटल बना रहा। कस्बे के नगरपालक की ओर से उन्हें इस संबंध में भेजा गया एक लंबा तार वास्तुकला के हर छात्र को आज भी पढ़ाया जाता है। संकट के उन दिनों में इसी होटल से राहत के काम चले थे। राइट ने कोई नई 'भूकंप-सह' तकनीक नहीं लगाई थी, वहीं के अनुभव को नींव में डाल कर होटल खड़ा किया था। उन्होंने भूकंप की इज़्ज़त करने वाला ढांचा खड़ा किया था।

वापस उत्तराखंड लौटें। सदियों से हिमालय में रहने वाले लोग अपने घर खुद ही बनाते आए हैं। और ये घर जिस ढंग से बनते रहे हैं, उसी ढंग में भूकंप सहने की कुछ ताक़त भी रहती है। ये बनते 'अनगढ़' पत्थर के ही हैं पर उतने अनगढ़ नहीं जितने कि आज सरकार मान रही है। दीवारों को बनाने के लिए नदी के गोल पत्थर नहीं लिए जाते हैं। फिर पत्थरों को तीन तरह से तराशा भी जाता है, केवल वह भाग, जो दीवार के भीतर रहेगा मसाला पकड़ने के लिए बिन तराशा छोड़ा जाता है। इस तरह से बडी मेहनत के साथ तराशे पत्थर नींव और दीवार में लगते हैं और फिर इन पर खड़ा होता है बल्लियों और चौकोर चीरे गए लट्ठों का ढांचा। लट्ठों की चिराई बड़े-बड़े आरों से की जाती रही है। ऐसे

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