बड़े आरों को दो लोग चलाते थे। बाद में यह काम आरा मशीनों पर भी होने लगा। दीवारों में दरवाज़े भी छोटे, खिड़कियां भी छोटी लगती हैं। बिना झुके भीतर नहीं जा सकते इनसे। ठीक आदमक़द दरवाज़े बनाने से उन्हें किसी ने रोका नहीं है पर अनुभव से वहां यह चलन चला होगा कि छोटे दरवाज़े और खिड़कियां ठंड तो रोकते ही हैं, दीवार की मज़बूती भी बढ़ाते हैं।
सरकारी रिपोर्ट ने दो मंज़िले मकानों पर टिप्पणी करते हुए इन्हें एक मंज़िल मकानों से ज़्यादा खतरनाक बताया है। दो मंज़िलें मकान तो यहां खूब बनते हैं। पहाड़ी ढलान पर एक के बदले दो मंज़िलें मकान बहुत ख्खूबी से बनाए जाते हैं। ढलान के ऊपरी हिस्से से इनमें सीधे, बिना सीढ़ी के दूसरे मंज़िल में प्रवेश होता है और ढलान के निचले हिस्से से पहली मंज़िल में। पहली और दूसरी मंज़िल के बीच का भाग मज़बूत लट्ठों पर टिका रहता है, फ़र्श भी लकड़ी के फट्टों से बनता है। यही पहली मंज़िल की छत होती है। दूसरी मंज़िल से बाहर झांकता छज्जा भी मुख्य ढांचे से बाहर निकले लट्ठों पर टिका रहता है। कोई दो हाथ बाहर निकला यह छज्जा किसी भी हालत में दीवार पर बोझ नहीं बनता। ओबरा, बोवरा, कोठार, मैंजुला और टैपुरा यानी नींव, नीचे का कमरा, कोठार और दूसरी मंज़िल और फिर ढाई मंज़िल जो घर का अतिरिक्त सामान रखने के लिए काम आती है। हर भाग एक निश्चित नियम के अनुसार बनता रहा है, ऐसे ही अललटप्पू अनगढ़ ढंग से नहीं।
पहाड़ी गांवों के ही नहीं, क़स्बों और शहरों के मकानों की ऊंचाई हमेशा नियंत्रित रखी जाती रही है। एक अलिखित नियम रहा है कि बस्ती का कोई भी घर गांव के देवालय से ऊंचा नहीं बन सकता। भला कौन अपना घर भगवान के घर से ऊंचा दिखाना चाहेगा? फिर भगवान का घर इस देवभूमि में कभी बहुत ऊंचा नहीं बनाया गया। भगवान के
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