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पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/९४

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भूकंप की तर्जनी और कुम्हड़बतिया


तो भी बात समझ में आ सकती है। पर क्या हो गया सरकार के उस कृषि मंत्रालय को जिसने इस रिपोर्ट को 'मोस्ट इमिजिएट' लिख कर तुरंत प्रचारित कर दिया है। मकानों को भूकंप सह बनाने की सरल विधि में लगने वाला सामान, मिलीमीटर में नाप-तौल कैसे इन गांवों में, कितनी मात्रा में पहुंच सकेगा? वैज्ञानिकों और सरकार का इस संबंध में ऐसा विचित्र उत्साह देख असली सवाल पूछने की हिम्मत ही नहीं जुट पाती कि भैया यह सब करने की ज़रूरत क्या है?

लेकिन लगता है बहुत से लोग इसी में लग गए हैं। भूकंप राहत का काम देख रही कई संस्थाओं में इस तरह की तकनीक के मकानों का कोई आदर्श ढांचा बना लेने की, 'ठोस' सुझाव देने की जैसे होड़ लग गई है। विदेशी अनुदान देने वाली संस्थाएं भी ऐसी तकनीक सुझाने वाले योग्य पात्र की तलाश में हैं। दिल्ली में पिछले सप्ताह एक ऐसे ही मॉडल की प्रदर्शनी और उसे बड़े पैमाने पर उत्तराखंड में उतारने की गोष्ठी भी हो चुकी है।

देश के एक हिस्से पर आए इतने बड़े संकट के बाद उसमें निपटने में वैज्ञानिक, सरकार और हम सब इतने कमज़ोर साबित हों तो पहला काम हमारे दिमागों के 'दृढ़ीकरण' का होना चाहिए, न कि उत्तराखंड के मकानों का।

यह सही है कि भूकंप में मकान बड़े पैमाने पर गिरे हैं। पर कुछ ख़ास जगहों में मकान ज़्यादा गिरे हैं और उनमें भी उस तरह के मकान शायद ज़्यादा हैं जो अब तक की अपनी पद्धति से कुछ हट कर बने थे। यह ख़ास जगह कौन-सी है? उत्तरकाशी का वह भाग जहां पहाड़ों को काटकर, बारूद के बड़े-बड़े धमाकों से उड़ा कर वे सब काम किए गए हैं, जिन्हें विकास कार्य कहा जाने लगा है। कहीं बांध बन रहा है, कहीं कोई बड़ी सड़क। इन सब कामों ने न जाने कब से इन पहाड़ों

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