को और उन पर बसे गांवों को हिला कर रखा था। बारूद के इन धमाकों से इन इलाकों में चूल्हे पर रखे तवे नाचते रहते थे।
हिमालय की अधिकांश बसाहट पुराने भूस्खलन के मलबे के विशाल ढेरों पर बसी है। हर छोटी-बड़ी पहाड़ी के नीचे बहने वाली तेज़ प्रवाह की नदी नीचे से ज़मीन काटती रहती है और ऊपर से वह बरसात जो साल के पूरे चार महीने बरसती है। ऐसे में लोगों ने वर्षों के अच्छे और बुरे अनुभवों से सीख कर जीवन का एक तरीका निकाला था। भूकंप तब भी आए थे और एक हिम्मती, मज़बूत समाज ने बिना किसी के आगे हाथ पसारे अपने संकट को सहा ही था। इन भूकंपों में तमाम सावधानियों के बाद भी कई बार गांव-के-गांव उजड़े होंगे। इनके चिह्न आज भी हैं। अलकनंदा के तट पर चमोली में बसे हाट गांव का एक भाग आज भी छप्परवाड़ा कहलाता है। किसी ऐसे ही संकट में उजड़ने के बाद गांव अस्थायी तौर पर छप्परों के नीचे बसता रहा। फिर धीरे-धीरे लोगों ने फिर से अपने घर-खेत संवार लिए। पर जगह का नाम छप्परवाड़ा ही बना रहा।
धीरे-धीरे चीज़ें बदी भी। कुछ मजबूरी में, और कुछ बाहर के असर के कारण सीमेंट के घर की प्रतिष्ठा भी बढ़ी। जितने भी सरकारी मकान बने, इसी से बने। पर हर कोई सीमेंट से मकान नहीं बना पाया। इस इच्छा को पूरा करने का मौक़ा ऐसे इलाकों में अनायास ही हाथ लग गया जहां कोई बड़ी सरकारी योजना बनने लगी। चोरी का सीमेंट सस्ता मिला। कई घर बदल गए। जल्दबाज़ी में हुई तोड़-फोड़ और निर्माण में शायद वैसी सावधानी नहीं रखी गई जैसी मकान बनाते समय सदियों से रखी जाती रही है। फिर बारूद के धमाकों ने इसे और कमज़ोर किया। ऐसे में 6.1 माप का भूकंप काफ़ी था। पर इस सबके बाद भी हम यह नहीं कह सकते कि 19 अक्तूबर को आया भूकंप बहुत साधारण
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