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भकंप की तर्जनी और कुम्हड़बतिया


था, उसने तो बस तर्जनी दिखाई थी और कुम्हड़बतियां गिर गईं।

एक तरफ़ तो सरकार और उसके सभी वैज्ञानिक इस ढंग से सोच रहे हैं और दूसरी तरफ वे अपनी योजनाओं को बेहद पक्का, मज़बूत, 'भूकंप सह' मानने का गर्व कर रहे हैं। 15 अक्तूबर से अब तक न जाने कितनी बार यह गर्वोक्ति सुनने को मिली है कि टिहरी बांध को भूकंप से कोई नुकसान नहीं हुआ है। इधर इसी के साथ ऐसे समाचार भी छपते रहते हैं कि बांध में दरार पड़ गई थी लेकिन उसे रातोंरात ठीक कर लिया। पहाड़ों में कई जगह बांध बन रहे हैं। सरकार और उसके वैज्ञानिक हमें यही बताने की कोशिश में लगे हैं कि इन पर कभी भी किसी भूकंप का कोई असर नहीं पड़ेगा। बांध न हुआ, शिवजी का धनुष हो गया। शिवजी का धनुष किसी से हिल तक नहीं पाया था। 'गरऊ कठोर बिछित सब काहू'। रावण और बाणासुर जिनके चलने से ही धरती कांप उठती थी, वे भी धनुष को देख चुपचाप चलते बने, उसे उठाना तो दूर, छूने की हिम्मत भी नहीं हुई। जब एक-एक कर राजा हार गए तो फिर हज़ारों राजाओं ने उसे एक साथ उठाने का प्रयत्न किया था- 'भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा।' पर वह टस-से-मस नहीं हुआ। ऐसे धनुष को श्रीराम ने बस छुआ भर था कि वह टूट गया।

वह क़िस्सा लंबा है। उसे अभी यहीं छोड़ें। पर अंत में उत्तर प्रदेश की उस सरकार से जो राम का नाम लेकर सत्ता में आई है, इतना ही निवेदन करते हैं कि वह तो कम-से-कम भूकंप की तर्जनी; कुम्हड़बतियां और शिवजी के धनुष का ठीक अर्थ समझें।

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