पर्यावरण : खाने का और दिखाने का और
पांच जून को 'पर्यावरण दिवस' मनाया जाता है। गिनती में यह कुछ भी हो, पर चरित्र में, पर्यावरण की समझ में, यह पहले समारोह से अलग नहीं होता। 1972 में सौ से अधिक देश संयुक्त राष्ट्र संघ के छाते के नीचे पर्यावरण की समस्याओं को लेकर इकट्ठे हुए थे। तब विकास और पर्यावरण में छत्तीस का रिश्ता माना गया था। सरकारें आज भी पर्यावरण और विकास में खटपट देख रही है, इसलिए प्रतिष्ठित हो चुके विकास-देवता पर सिंदूर चढ़ाती चली जा रही हैं। लेकिन विकास के इसी सिंदूर ने पिछले दौर में पर्यावरण की समस्याओं को पैदा किया है और साथ ही अपने चटख लाल रंग में उन्हें ढकने की भी कोशिश की है।
सरकारी कैलेंडर में देखें तो पर्यावरण पर बातचीत 1972 में हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के स्टॉकहोम सम्मेलन से शुरू होती है। पश्चिम के देश चिंतित थे कि विकास का कुल्हाड़ा उनके जंगल काट रहा है, विकास की पताकानुमा उद्योग की ऊंची चिमनियां, संपन्नता के वाहन, मोटर गाड़ियां आदि उनके शहरों की हवा ख़राब कर रही हैं, देवता सरीखे उद्योगों से निकल रहा 'चरणामृत' वास्तव में वह गंदा और ज़हरीला पानी है, जिसमें उनकी सुंदर नदियां, नीली झीलें अंतिम सांसें गिन रही हैं।