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पर्यावरण : खाने का और दिखाने का और


ये देश जिस तकनीक ने उन्हें यह दर्द दिया था, उसी में इसकी दवा खोज रहे थे। पर तीसरी दुनिया के ज़्यादातर देशों को लग रहा था कि पर्यावरण संरक्षण की यह नई बहस उनके देशों के विकास पर ब्रेक लगा कर उन्हें पिछड़ा ही रहने देने की साज़िश है। ब्राज़ील ने तब ज़ोरदार घोषणा की थी कि हमारे यहां सैकड़ों साफ़ नदियां हैं, चले आओ, इनके किनारे अपने उद्योग लगाओ और उन्हें गंदा करो। हमें पर्यावरण नहीं, विकास चाहिए। भारत ने ब्राज़ील की तरह बाहर का दरवाज़ा ज़रूर नहीं खोला, लेकिन पीछे के आंगन का दरवाज़ा धीरे से खोलकर कहा था कि ग़रीबी से बड़ा कोई प्रदूषण नहीं है। ग़रीबी से निपटने के लिए विकास चाहिए। और इस विकास से थोड़ा बहुत पर्यावरण नष्ट हो जाए तो वह लाचारी है हमारी। ब्राज़ील और भारत के ही तर्क के दो छोर थे और इनके बीच में थे वे सब देश जो अपनी जनसंख्या को एक ऐसे भारी दबाव की तरह देखते थे, जिसके रहते वे पर्यावरण संवर्धन के झंडे नहीं उठा पाएंगे। इस दौर में वामपंथियों ने भी कहा कि 'हम पर्यावरण की विलासिता नहीं ढो सकते।'

इस तरह की सारी बातचीत ने एक तरफ़ तो विकास की उस प्रक्रिया को और भी तेज़ किया जो प्राकृतिक साधनों के दोहन पर टिकी है और दूसरी तरफ़ ग़रीबों की जनसंख्या को रोकने के कठोर-से-कठोर तरीके ढूंढ़े। इस दौर में कई देशों में संजय गांधियों का उदय हुआ, जिन्होंने पर्यावरण संवर्धन की बात आधे मन और आधी समझ से, पर परिवार नियोजन का दमन चलाया पूरी लगन से। लेकिन इस सबसे पर्यावरण की कोई समस्या हल नहीं हुई, बल्कि उनकी सूची और लंबी होती गई।

पर्यावरण की समस्या को ठीक से समझने के लिए हमें समाज में प्राकृतिक साधनों के बंटवारे को, उसकी खपत को समझना होगा। सेंटर फ़ॉर साइंस एंड एनवायर्नमेंट के निदेशक अनिल अग्रवाल ने इस बंटवारे

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