का एक मोटा ढांचा बनाया था। कोई 5 प्रतिशत आबादी प्राकृतिक साधनों के 60 प्रतिशत भाग पर कब्जा किए हुए है। 10 प्रतिशत आबादी के हाथ में कोई 25 प्रतिशत साधन हैं। फिर कोई 25 प्रतिशत लोगों के पास 10 प्रतिशत साधन हैं। लेकिन 60 प्रतिशत की फटी झोली में मुश्किल से 5 प्रतिशत प्राकृतिक साधन हैं।
हालत फिर ऐसी भी होती, तो एक बात थी। लेकिन इधर 5 प्रतिशत हिस्से की आबादी लगभग थमी हुई है और साथ ही जिन 60 प्रतिशत प्राकृतिक साधनों पर आज उसका कब्जा है, वह लगातार बढ़ रहा है। दूसरे वर्ग की आबादी में बहुत थोड़ी बढ़ोत्तरी हुई है और शायद उनके हिस्से में आए प्राकृतिक साधनों की मात्रा कुछ स्थिर-सी है। तीसरे 25 प्रतिशत की आबादी में वृद्धि हो गई है और उनके साधन हाथ से निकल रहे हैं। इसी तरह चौथे 60 प्रतिशत वाले वर्ग की आबादी तेज़ी से बढ़ चली है और दूसरी तरफ़ उनके हाथ में बचे-खुचे साधन भी तेज़ी से कम हो रहे हैं।
यह चित्र केवल भारत नहीं, पूरी दुनिया का है। और इस तरह देखें तो कुछ की ज़्यादा खपत वाली जीवन शैली के कारण ज़्यादातर की, 80-85 प्रतिशत लोगों की जिंदगी के सामने आया संकट समझ में आ सकता है। इस चित्र का एक और पहलू है। आबादी का तीन-चौथाई हिस्सा बस किसी तरह जिंदा रहने की कोशिश में अपने आसपास के बचे-खुचे पर्यावरण को बुरी तरह नोचता-सा दिखता है तो दूसरी तरफ़ वह 5 प्रतिशत वाला भाग पर्यावरण के ऐसे व्यापक और सघन दोहन में लगा है जिसमें भौगोलिक दूरी कोई अर्थ नहीं रखती। कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश में लगे कागज़ उद्योग आसपास के जंगलों को हज़म करने के बाद असम और उधर अंडमान निकोबार के जंगलों को भी साफ़ करने लगे हैं। जो जितना ताकतवर है चाहे वह उद्योग हो या शहर,
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