पृष्ठ:साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था.djvu/१६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

कौत्स्की: "...क्या यह नहीं हो सकता कि वर्तमान साम्राज्यवादी नीति का स्थान एक नयी, अति-साम्राज्यवादी नीति ले ले, जो राष्ट्रीय वित्तीय पूंजियों की पारस्परिक प्रतिद्वंद्विता के बजाय अन्तर्राष्ट्रीय पैमाने पर एकबद्ध वित्तीय पूंजी द्वारा दुनिया का मिलकर शोषण करने की पद्धति लागू करे? पूंजीवाद की इस नयी अवस्था की कम से कम कल्पना तो की ही जा सकती है। क्या यह अवस्था प्राप्त की जा सकती है? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए अभी हमारे पास काफ़ी आधारभूत तथ्य नहीं हैं?"*[१]

हाबसन: "बहुत-से लोगों का ऐसा विचार है कि वर्तमान प्रवृत्तियों की सबसे न्यायसंगत परिणति यह होगी कि ईसाई-जगत इस प्रकार कुछ बड़े-बड़े संघात्मक साम्राज्यों में विभाजित हो जाये, जिनमें से हर एक के अधीन कुछ असभ्य परतंत्र देश हों, और यह एक ऐसी बात होगी जिससे अंतर-साम्राज्यवाद के आश्वस्त आधार पर स्थायी शांति की सबसे अधिक आशा की जा सकती है।"

जिस चीज़ को हाबसन ने तेरह वर्ष पहले अंतर-साम्राज्यवाद कहा था उसी को कौत्स्की ने अति-साम्राज्यवाद या महा-साम्राज्यवाद कहा। एक नया और चुस्त आकर्षक शब्द गढ़ लेने के अतिरिक्त, जिसमें एक उपसर्ग के स्थान पर दूसरा उपसर्ग रख दिया गया है, कौत्स्की ने "वैज्ञानिक" विचारों के क्षेत्र में जो एकमात्र प्रगति की है वह यह कि हाबसन ने जिस चीज़ का वर्णन अंग्रेज़ पादरियों के धर्मोपदेश के रूप में किया था उसे उन्होंने मार्क्सवाद कहकर प्रस्तुत किया है। अंग्रेज़-बोएर युद्ध के बाद इस अत्यंत सम्मानित बिरादरी के लिए यह स्वाभाविक ही था कि वह ब्रिटिश मध्यम वर्ग के उन लोगों को तथा उन मज़दूरों को


  1. * «Neue Zeit», ३० अप्रैल, १९१५, पृष्ठ १४४।

१६८