पृष्ठ:साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था.djvu/१६९

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सांत्वना देने की पूरी कोशिश करे जिनके बहुत-से सगे-संबंधी दक्षिणी अफ़्रीका के रणक्षेत्र में मारे गये थे और जिन्हें और अधिक टैक्स देने पर मजबूर किया जा रहा था ताकि ब्रिटिश महाजनों के लिए और अधिक मुनाफ़ा सुनिश्चित हो सके। और इस सिद्धांत से बढ़कर सांत्वना और क्या हो सकती थी कि साम्राज्यवाद इतना बुरा नहीं है, कि वह अंतर-(या अति-) साम्राज्यवाद के बहुत निकट है जिससे स्थायी शांति सुनिश्चित हो सकती है? अंग्रेज़ पादरियों या भावुक कौत्स्की की सदिच्छाएं कुछ भी रही हों पर कौत्स्की के "सिद्धांत" का जो एकमात्र वस्तुगत, अर्थात्, असली सामाजिक महत्व हो सकता है वह यह है कि वह आम जनता का ध्यान वर्तमान युग के तीव्र विरोधों तथा उग्र समस्याओं की ओर से हटाकर तथा उसे भविष्य में आनेवाले कल्पित "अतिसाम्राज्यवाद" की भ्रममूलक संभावना की ओर निर्देशित करके उसे पूंजीवाद के अंतर्गत स्थायी शांति के संभव होने की आशाओं से सांत्वना देने का एक अत्यंत प्रतिक्रियावादी तरीक़ा है। जनता को धोखा देना—कौत्स्की के "मार्क्सवादी" सिद्धांत में इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

वास्तव में यदि हम सुविदित तथा अकाट्‌य तथ्यों की तुलना भर कर लें तो हमें विश्वास हो जायेगा कि कौत्स्की जर्मन मज़दूरों के सामने (और सभी देशों के मज़दूरों के सामने) जिन संभावनाओं का

आकर्षक चित्र प्रस्तुत करना चाहते हैं वे कितनी झूठी हैं। भारत, हिंद-चीन तथा चीन का उदाहरण ले लीजिये। यह विदित है कि ये तीन औपनिवेशिक तथा अर्ध-औपनिवेशिक देश, जिनकी कुल आबादी साठ से सत्तर करोड़ तक है, कई साम्राज्यवादी ताक़तों की—ग्रेट ब्रिटेन, फ़्रांस, जापान, संयुक्त राज्य अमरीका आदि की—वित्तीय पूंजी के शोषण का शिकार हैं। मान लीजिये कि ये साम्राज्यवादी देश इन एशियाई राज्यों में अपने अधिकृत क्षेत्रों, अपने हितों और अपने "प्रभाव-क्षेत्रों" की रक्षा

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