पृष्ठ:साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था.djvu/१७३

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विशेषताओं की आलोचना पर भी दिखायी देती है। साम्राज्यवाद वित्तीय पूंजी तथा इजारेदारियों का युग है, जो हर जगह स्वतंत्रता की भावना को नहीं बल्कि प्रभुत्व स्थापित करने की चेष्टा को जन्म देता है। इन प्रवृत्तियों का परिणाम यह होता है कि हर क्षेत्र में, उसकी राजनीतिक व्यवस्था कुछ भी हो, प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है और इस क्षेत्र में भी मौजूदा विरोध अत्यंत उग्र रूप धारण कर लेते हैं। जातीय उत्पीड़न का भार तथा दूसरों के इलाक़े को अपने राज्य में मिला लेने की चेष्टा, अर्थात् जातीय स्वतंत्रता का हनन (क्योंकि दूसरों के इलाक़े को अपने राज्य में मिला लेने का मतलब जातियों के आत्म-निर्णय के अधिकार के उल्लंघन के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता है) विशेष रूप से उग्र रूप धारण कर लेते हैं। हिल्फ़र्डिंग ने साम्राज्यवाद तथा जातीय उत्पीड़न के उग्र होने के पारस्परिक संबंध को ठीक पहचाना है। वह लिखते हैं, "जिन देशों के मार्ग अभी नये-नये खुले हैं उनमें बाहर से आनेवाली पूंजी विरोधों को गहरा बना देती है और बाहर से आकर हस्तक्षेप करनेवालों के खिलाफ़ उन देशों की जनता के निरंतर बढ़ते हुए विरोध का जन्म देती है क्योंकि जनता में जातीय चेतना आने लगती है; यह विरोध विदेशी पूंजी के खिलाफ़ आसानी से खतरनाक रूप धारण कर सकता है। पुराने सामाजिक संबंधों में पूर्णतः एक क्रांतिकारी परिवर्तन आ जाता है, 'इतिहास रहित राष्ट्रों' का युगों पुराना कृषि पर आधारित पार्थक्य नष्ट हो जाता है और वे खिंचकर पूंजीवाद के भंवर में आ जाते हैं। पूंजीवाद स्वयं पराधीन जातियों को उनकी मुक्ति के साधन तथा उपाय प्रदान करता है और वे उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अग्रसर होती हैं जो किसी समय यूरोपीय राष्ट्रों को सर्वोपरि लक्ष्य प्रतीत होता था : आर्थिक तथा सांस्कृतिक स्वतंत्रता के माध्यम के रूप में एक संयुक्त जातीय राज्य की रचना। जातीय स्वतंत्रता का यह आंदोलन यूरोपीय पूंजी के लिए उसके शोषण के सबसे बहुमूल्य तथा सबसे

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