पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१०

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[९] सुकर सारंग ते सहज संभारन लागे। अंतरिछ श्रीबंधु एक को चाषत अति अनुरागे ॥ भूषन हित पर नाम छोटबड दोहन को कर राषी। सूरज प्रभु फिर चले गेह को करत सत्रु सिव साषी ॥७॥ उक्तिसपी की सपी से कै हे सषी आज सामरी स्यामा राधा सपी के साथ जलकेलि करत रही तहा सुंदर स्याम आए प्रेमवेली पसारत अघहर बेनी एक की विवरन लगे अरु एक को अंतरिछ कहै अधर श्री वंधु सुधा सो चाप के बहुत अनुरागे भूषन अलंकार पर नाम के हेत छोट बड़ कहै जेष्टा कनिष्ठा दोहुन को बनाइ ग्रेह को चले शिवसत्रु काम को साछी दै के इहां प्रेमबेल पसारव क्रिया ते परनाम अलंकार अरु पेनी बिबरन में कनिष्ठा अधर चूमत में जेष्ठा ताको लच्छन । दोहा-बरननीय होके बरन, करत क्रिया पर नाम । __ अधिक न्यून स्नेह ते, जेष्ट कनिष्टा बाम ॥ १ ॥७॥ दिनपति चले धौ कहा जात। धरा- धरनधररिपुतन लीनो कही उदधि- सुत बात ॥ लव उलटो दो जाउ तिहारी ताको सारंगनैन । तुम बिनु नँदनँदन ब्रजभूषन होत न नेको चैन ।' मुरली मधुर बजावहु मुष ते रुष जनि अनतै फरो। सूरज प्रभु उल्लेख सबन को ही परपतनी हेरी॥८॥