पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१४५

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वह हरिसुत भारत जानि। जैसे हरि करि बंध प्रगट भये तैसे तुम हरि आरति मानि ॥ घटआननबाहन कानन मै घन रजनी तहँ बासी । सूरदास प्रभु चतुर सिरोमनि सुनि चाचिक पिक त्रासी ॥ २६॥ सषी री इति । नायका की उक्ति सपी सौं। हे सपी हरि विना हमारे दुष को हरै। सिंह को सुत राहु अरु हर भूषन चंद्रमा को अस है तैसे हमारी गति भई है । सिएर जो है कैलास ताको वेधु मिय सिद तिन को अरि काम सो पुष्प धनुष लै कै बहुत पीडा देत है । सशुलवा सर्पयत उर को हार भयो है या वपु सरीर की रेष छीन करे हैं। अरु घटसुत अगस्त ताको असन समुद्र ता बरोबर ता समै भयो है। अरु ताको सुत चंद जैसे जैसे अमी ते रहित होय है तैसों आनन भयो है। जलधर मेघ अंबु जल ताको बरसै है तासों हमारे नेत्र बाजी बदि लेत कै हम अधिक बरसैं हैं जदुपति गर्भ प्रभु कृष्ण मिलाबहु ! हरिसुत काम ताकी आरति जानि के जैसे हरि जो विष्णु हैं सो करी जो गज ताके वंधु नाम मित्र हो आरत हरी तैसे तुम हो । पटआननबाहन मयूर कानन में बोले है औ रजनी में घन भये हैं हे सूरदास प्रभु चतुर सिरोमनि मोको चातिक पिक की त्रास जानों ।। २९ ॥ राग सारंग। कहाँ लौं राषिय मन विरमाई। एकटक सिव धरे नैनन लागत स्याम सता मत धन आई॥ हरवाहन दिव बास सहोदर तिहि मिलि उदित मुरछि