पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१७

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सूरजसुता नहाई ॥ हरिग्रहजननी हितन सरस कह सुरभी सुतर गमाई। सारंगसुत नीकनते बिछुरत सर्पबेलिरस जाई ॥ भानु भानुसुत सी सु भान मम सबहित सरस कमाई। सूरज पर आनंद दषित कर सर संजोगता जाई ॥ १६ ॥ उक्ति नाइका की सषी सो कै निस अंत दिनपति सूर्य पुत्र करन सुभाव सषी हे सषी तू कहां ते आई है पुत्र नंद ताके नंदन के पास गई कै जमुना नहाई है हरि बानर ग्रह वृक्ष जननी प्रिथी हित पयोधर तिन को सुरभी चंदन कहा गमायो सारंगसुत काजर नीकन अछन ते विथुरो है सर्पबेलि नागवेल पान का रस जाइ रहो है । भानु सूर्य (अरु भानुसुत) सुत सनि सी मोको भान नास करन तेरी कमाई है। यह परायो आनंद दुषता पर संभोगदुषता सो मेरे बराबर की जागता तुल्य जोगिता की जाइ है या पद में सपी के संभोग ते अन्नसंभोगदुषता अरु सूर्य सन उपमान उपमेय की तुल्य जोगता अरु मो सम उपमेयं की लक्षण । दोहा-पर संभोगे अति दुषित, दुषिता पर संभोग । ___ बरण अबरनन ते कहै, तुल्य जोगता जोग ॥ १ ॥१६॥ बीथिन मिलो नंदकुमार । उदित उतते भयो सजनी रिछुपति रुच धार॥ भालु बसु पुन पंचदोउ करे अदभुत रूप। मोहिं गहि ले गयो कुंजन मंजु मनिसिज भूप ॥ निकसबी हम कौन मग हो कहै