पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/५३

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। ५२ । राधे इति उक्ति सपी की (के) सषी प्रति के आज वृषभानदुलारी को देष दिनपति सूर्य सुत करण भ्रात जुधिष्ठिर पिता घरमराज पिता सूर्य पुत्री जमुना पिता कृष्ण सुत सुत अनरुध पतिनी ऊषा पिता बानासुर हित महादेव सत्रु काम पतिनी रति सो रति करी महा थकित भई. है अंग नाहीं संभार सकत नीकन अछन में आछी दुत है ताते अंतरिछ अधरन में मेघन कहै पयोधरन में पाट नषा जातिक घाउ नपछद पै तीन लोक की छबि बारत हो भूषन सार स्रम के सीकर तें सोभा उमडत है या पदन में जो स्रम भयो तातें स्त्रम संचारी अरु द्रगन में एक एक की छबि अधिक है ताते सार अलंकार लच्छन । दोहा-बहुत उताइल काज ते, सम सुसिथिलता होत । एक एक ते अधिक है, भूषन सार उदोत ॥ १ ॥५१॥ - राधा बार बार जमुहात । जलचर जल सुत कीर बिंब फल है रसाल के सात ॥ द्रिग मुष देष नासिका अधरन ठोठी ठीक लषात ॥ सारंग सुत छवि बिन नथुनी रस बिंदु बिना अधिकात । सूरज आलस जथा संष कर बूझ सषो कुसलात ॥५२॥ राधा इति उक्ति सषी की सषी सों कै राधा बार बार जमुहात है जलचर मीन जलसुत चंद कीर सुआ विंब फल कुंदुरु रसाल आम ए जथा संप कर लगावत सब द्रिग जलचर मुष ससि कीर नासिका बिंत्र अधर रसाल ठोठी सारंग सुत काजर द्रगन छबि मुष नथुनी नासिका रस अधर बिटु ठोठी यामें आलस संचारी जथा संप अलंकार लच्छन । .. दोहा--उठ न संकत ऐंठात तन, जहां सुआलस होइ । _बस्तु अनुक्रम संग ते, जथा संप कबि लोइ शा९२॥