पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/६३

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मुनि षटधर एक एक उपर सुच सोउ । अंतरिछ सारंग सुत उन के उन उन रंग विन नीकन होउ ॥ यह सुष मधुर सुनत श्रवनन में रहत सेस आनंद भर जोउ। सूरदास प्रभु को यह लीला मिथ्या करत ब्रह्म सषधोउ ॥६४ ॥ उक्ति सषी की सपी प्रत के हे सपी आज कुंजभवन में दोऊ सोवत है वृषभानकुमारी कृष्ण हाथन कहै करण ताको पिता सूर्य सुत सुकंठ हित रिक्ष कही नक्षत्र घट सात तेरहैं हस्त हाथ राधा को कृष्ण पै कृष्ण को राधा पै(कृष्ण के) सारंग सुत काजर अंतीरक्ष अधरन में है उन राधा ने उन रंग स्याम ताते हीन नीकन अछन को कियो है यह सुष मधुर श्रवनन में सुन सेस आनंद में भर रहत है यह लीला ब्रह्म सुष कै धोवत यामें मिथ्याधि बसत अलंकार निद्रा संचारी है लच्छन । दोहामिथ्याधिवसत झूठही, कहै जो झूठी रीत । इंद्री काम न कर सकै, सो निद्रा की प्रीत ॥१॥६४॥ मेरी कहो न मानत राधे। ए अपनी मत समुझत नाहों कुमत कहां पन नाधे ॥ दधिसुतसुतसत के हितकारी सज सज सेज बिछावै। तापर पौढ चहत है आपन भल बल को समुझावै॥ ग्रह नछत्र अरु बेद अरध करी पात हरष मन बाढो । तातें चहत अमरपन