पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

राधे रात सुरत रंग रातो। नंदनंदन संग कुंजभवन में मदन मोद मदमाती॥ कारन अंत अंत ते घटकर आदि घटत पै जोई। मड़ घटे पर नास कियो है नीतन में मन भोई ॥ गिरजापति पतनी पतिजा सुत गुन गुन गनन उतारे। तनसुत कन से धन विचार के तुरत भूमि पैडारै॥ सारंग ओरनिहारत फिर फिर थिर चित चतुर न पावै । सूरस्थाम कोबिदा सुभूषन कर बिपरीत बनावै ॥५॥ राधे इति या पद में प्रौढा नाइका प्रतीप अलंकार होत है । ताको लच्छन । दोहा-काम कला कोविद कहै, प्रौढा सो कवि लोइ । _उममेयो उपमान ते, कहि प्रतीप चित जोइ ॥ सखी की उक्ति सखी प्रति कि राधे आजु सुरत में रती हैं कुंजघर में कृष्ण के संग काममद ते मतवारी भई है कारन को अंत काज सो अंत ते घट करो तब होइ अरु आद घट ते जल होइ है मद्ध के घटे नास नाम काल ऐसो काजल सो नीतन नाम नयन ते घटायो है गिरजापतिपतनी गंगा ताको पति सिंधुजा सीपसुत मुक्ता तिन को गुन प्रात सीतल हो जात है सो जाने कै नाइक चल जे है ताते गन नाम समूह उतार के तन सुतस्वेद ताके कन से बिचार के धनि ने भूम पर डारत है सारंग जो दीप है ताकी ओर फिर फिर देखत है कि मलीन तो नाही भयो है याते चित थिर नाही होत ऐसी जो कोविदा है ताको विपरीत नाम प्रतीप अलं- कार कर कहत है ॥५॥