पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/९२

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अंग अंगन दोपत है। यह विध सिद्ध अलंकत सूरज सब विध सोभा छैहै ॥६॥ उक्ति दूती की जब तै वृजचंद के चंद घुष देषि है तब यह जो मान की बान तेरी है सो अंग आप ही ते न राषिहै कुंत अग्र जो भाल है तामें गज नाम सिंदुर दै है अरु नीकन नाम नैनन मों दिग्गज को नाम अंजन सो काजर दै है अरु पापहरन वेनी तामें देव नाम सुमन गजपुत्र नाम मुक्ता बनावैगी सुधा गेह जो अधर है तामें करी नाम नाग पान ताको सोभा सारंग भ्रमर रिपु चंपा सिसकली चंपाकली बनाइहै धन पयोधरन पै जलजा सीप सुत मुक्ता को हार पहिरहै हे सांवरी स्यामा तू यह सब करैगी बार भूषन पहिर (ता) स्याम के रंग के जे पट है ने तू धारन करैगी अंग अंग में दीपति बढावैगी यह विध ते सिद्ध जो भूषन अलंकार है (सो सोभा वानहूँ है यामें चंद को फेर वृजचंद जासो वृज सोभा पावत फेर साधो ताते बिध सिद्ध अलंकार है लच्छन । दोहा-अलंकार विध सिद्ध जो, अर्थ साधिए फेर ॥ ९७ ॥ नट देषत वृषभानदलारी। आनन अमल पोछ सारंगरिपु ते सारंगसुत रेष सम्हारी॥ दिगज बिंद बिजे छन बेदन भानु जुगल अनरूप उज्यारी। सेसलता के पत्र सुधा ग्रह गहत होत सुष अंगनभारो॥ कंठ लच्छ राषी सुकंठ में बाम अकास प्रकासित न्यारी । राम- दूत दीपत नच्छत्र में पुरोधनद रुचिरचि तमहारो॥ यह छवि देषि भयो अनंट