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साहित्यालाप


की पुष्टि में कोई अच्छी दलील नहीं पेश कर सके। माननीय वज़ीरहसन ने जो कुछ कहा, अधिक असंगत भाषा में नहीं कहा। उन्होंने कहा कि जिस भाषा में रामायण है क्या वही भाषा इस प्रान्त के लोग बोलते या लिखते हैं ? इस प्रस्ताव के विरोध में जो सङ्गत या असङ्गत और प्रासङ्गिक या अप्रासङ्गिक बातें कही गई सबका युक्तिपूर्ण उत्तर माननीय पण्डित तारादत्त गैरोला, लाला सुखवीर सिंह, पण्डित राधाकृष्ण दास और स्वयं प्रस्तावकर्ता महाशय ने दिया । प्रत्यक दलील की असारता सिद्ध कर दी गई। पर प्रस्ताव “पास" न हुआ। जिस प्रस्ताव का विरोध गवर्नमेंट करती है वही नहीं "पास" हो सकता। इसके विरोधी तो हमारे मुसलमान महाशय भी थे । अतएव इसकी जो दशा हुई वही इसके भाग्य में थी। तथापि जिस योग्यता से प्रस्ताव उपस्थित किया और जिस योग्यता से उन्होंने तथा उनके साथी अन्य हिन्दु मेम्बरों ने विरोधियों की बातों का उत्तर दिया, उसके लिए वे हिन्दी के प्रेमियों के धन्यवाद-पात्र हैं।

मुख्य प्रस्ताव नामंज़ूर होने पर माननीय रज़ाअली ने अपना फ्रेंच, रशियन आदि भाषाओं से सम्बन्ध रखनेवाला उपप्रस्ताव बड़ी खुशी से लौटा लिया और इस बात पर हर्ष प्रकट किया कि इस प्रस्ताव का यही परिणाम होना चाहिए था।

इस प्रस्ताव के सम्बन्ध में विरोधी-दल ने जिस प्रकार की युक्तियां लड़ाई,जिस प्रकार के निःसार-और निराधार