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कौंसिल में हिन्दी


पढ़ेंगे । आप इतनी ही उदारता दिखाइए कि हिन्दुओं के सुभीते के लिए उन्हें उसे पढ़ने और उसका प्रचार करने दीजिए।

(ङ) हिन्दी लिखनेवाले यदि उसे आसानी से नहीं पढ़ सकते या देर से लिख-पढ़ सकते हैं तो आपकी बला से। आपसे, और आप जिनके प्रतिनिधि हैं उनसे, तो कोई उसे लिखाने-पढ़ाने की चेष्टा करता नहीं। आप उर्दू-भाषा और फ़ारसी-लिपि ख़ुशी से लिखिए पढ़िए । कृपा इतनी ही कीजिए कि औरोंके मार्ग में कांटे न बखेरिए । जिन प्रान्तों में हिन्दी प्रचलित है वहाँ कोई काम कभी रुका नहीं और न किसीको हिन्दी लिखने-पढ़ने में कुछ कठिनता ही हुई । आपके इस आक्षेप का खण्डन विहार और मध्यप्रदेश की सैकड़ों कचहरियाँ कर रही हैं।

माननीय बर्न साहब की (च), (छ) और ( ज ) दलीलों के उत्तर में हमें सिर्फ इतना ही कहना है कि दस्तावेज़ें कम पेश की जाती हैं या ज़ियादह, इस पर पण्डित तारादत्त गैरोला की "स्पीच" आप सुन ही चुके हैं। पर इससे क्या बहस ? जब गवर्नमेंट ने यह नियम कर दिया कि अर्जीदावे देवनागरी-लिपि में भी दिये जा सकते हैं तब मुन्सिफ़ों और जजों के लिए उस लिपि का जानना लाज़मी हो गया। कल्पना कीजिए, किसी मुन्सिफ के यहाँ दायर किये गये किसी मुक़द्दमे में कोई ऐसी दस्तावेज़ पेश की गई जिसकी निसबत कुछ झगड़ा है---जिसका कुछ अंश एक पक्ष एक तरह पढ़ता