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कौंसिल में हिन्दी


स्कूलों में पढ़ाई जाने के लिए जो भोजप्रबन्धसार,गणितपाटो आदि कोड़ियों पुस्तकें प्रकाशित की थीं और जो बहुत समय तक जारी भी रही थीं वह भी सब स्वप्न की सम्पत्ति थी! गवर्नमेंट के काग़ज़पत्रों में फिर भला हिन्दी का नाम !

(ट) हिन्दी बोलनेवालों की संख्या का ठीक ठीक हाल मरदुमशुमारी के सुपरिन्टेन्डेन्ट ब्लंट साहब को भी नहीं मालूम, शुमार-कुनिन्दों को भी नहीं मालूम, हिन्दी बोलनेवाले हिन्दू-मुसलमानों को भी नहीं मालूम । और मालूम हो कैसे सकता है ! हिन्दी कोई भाषा भी हो ! छोटे-बड़े, स्त्री-पुरुष,हिन्दू-मुसलमान, देहाती-शहराती सभी तो उर्दू बोलते हैं ! फिर गिनती का झंझट कैसा!

माननीय वज़ीर हसन महाशय को सन्देह है कि रामायण की भाषा आज कल लोग नहीं बोलते । अतएव यदि वह हिन्दी मानी जाय तो वैसी हिन्दी आजकल प्रचलित नहीं। पर शेक्सपियर, बेकन और चासर की अँगरेज़ी आजकल ज़रूर बोली जाती है; इसीसे अंगरेज़ी का प्रचार है। और उर्दू ! अजी वह तो जब से पैदा हुई वैसी ही है । वली और आबरू,शाह हातिम और ख़ान आरज़ू जैसी उर्दू लिखते और बोलते थे वैसी ही आज भी तो लिखी और बोली जाती है ! मिलान कर लीजिये । वली का कहना है---

बेवफ़ाई न कर खुदा सों डर

जग-हँसाई न कर ख़ुदा सो डर

आवेहयात,संस्करण १८९९