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कौंसिल में हिन्दी


आरूढ़ रहे । हिन्दी को केवल इतनी अनुमति दी जाय कि यदि कोई भूला भटका उसके पास तक पहुँचे तो वह उसकी सहायता कर सके । बस।

यदि हम लोग अपना कर्तव्यपालन करें तो इस काम के लिए न किसीसे कुछ कहने की आवश्यकता, न कोई प्रस्ताव उपस्थित करने की आवश्यकता, और न कोई “डेपूटेशन" लेजाने की आवश्यकता यदि हिन्दी के हितैषी यह प्रतिज्ञा करलें कि पहले अपने बच्चों को हिन्दी पढ़ावेंगे,फिर और कोई भाषा; यदि मामले-मुकद्दमेवाले यह प्रतिज्ञा कर लें कि अर्जी देंगे तो और दस्तावेज़े लिखेंगे तो देवनागरी-लिपि में, तो बिना कुछ और कार्रवाई किये ही सरकारी मैन्युअल में भी उचित फेरफार हो जाय, मंसिफ़ और सब-जज भी हिन्दी जानने लगें और उर्दू के दास वकील-मुख़तार भी उसे सीखले । जब पेट दबता है तब आराम, आत्माभिमान और अनुदारता सभी कुछ दब जाता है । पचास मुवक्किलों में से यदि २५ भी डांट कर वकील साहब से कह दें कि हमारा काम हिन्दी (देवनागरी) में कीजिए,नहीं हम और वकील ढूंँढ लेंगे तो देखिए फिर वे कैसे हिन्दी नहीं सीखते । ये लोग ३० रुपये का मोटर-ड्राइवर और १५ रुपये का कोचमैन खुशी से रक्खेंगे; पर अपने देश, अपनी भाषा और अपने भाइयों के सुभीते के लिए १०) रुपये पर एक हिन्दीदाँ मुहारर न रखेंगे! इसका इलाज हमारे ही हाथ में है। और, अब समय आ