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मर्दूमशुमारी की रिपोर्ट में हिन्दी


ज़िले के निवासी मुसलमानों की संख्या से भी बढ़ा दी। उर्दू,हिन्दी की इस कमी-बेशी के सम्बन्ध में एक बात यह भी तो कही जा सकती है। वह यह कि सन् १९०१ की मर्दुमशुमारी में अनेक हिन्दुओं को, सम्भव है, यह भी ज्ञान न रहा हो कि वे उर्दू बोलते हैं या हिन्दी। इस दशा में, सम्भव है,उन्होंने भूल से अपनी भाषा उर्दू बता दी हो अथवा कर्मचारियों ही ने उनको भाषा उर्दू लिख दी हो । १९०१ से १९११ तक हिन्दी-उर्दू के सम्बन्ध में जो चर्चा हुई उससे यदि हिन्दुओं को इस दफ़े हिन्दी-उर्दू का भेद मालूम हो गया हो और उन्होंने अपनी भाषा उर्दू के बदले यदि हिन्दी लिखा दी हो तो उर्दू बोलनेवालों की संख्या में कमी होनी ही चाहिए! यह कमी यथार्थ कमी मानी जा सकती है, अयथार्थ नहीं। परन्तु इस बात को इस दृष्टि से रिपोर्ट लेखक ने नहीं देखा। अस्तु।

यदि हम ब्लन्ट साहब ही की बात मान लें और यह स्वीकार कर लें कि उर्दू बोलनेवालों की संख्या ४१ लाख नहीं,किन्तु ५०-६० लाख है, तो भी तो उर्दू का प्रचाराधिक्य नहीं साबित होता। कहाँ चार करोड़ हिन्दी बोलनेवाले और कहाँ साठ लाख उर्दू बोलनेवाले ! फ़ी दस हज़ार आदमियों में अंगर ९११६ श्रादमी हिन्दी बोलते हैं तो सिर्फ ८५३ आदमी उर्दू बोलते हैं !!! उर्दू बोलनेवालों की संख्या १५-२० लाख बढ़ा देने पर भी हिन्दी बोलनेवालों की संख्या संख्या उर्दू बोलने वालों की संख्या से सात आठ गुना अधिक रह जाती है। जिस उर्दू के