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साहित्यालाप


बोलनेवालों की संख्या इतनी थोड़ी है उन्हींकी भाषा और उन्हींकी लिपि का सरकारी कचहरियों और दफ़तरों में इतना अधिक प्रचार होना प्रजा के सुभीते की बात नहीं मानी जा सकती। सरकार को कृपा करके इसका प्रतीकार करना चाहिए।

एक वात और है। ब्लन्ट साहब ने पहले तो उर्दू को कोई भाषा नहीं माना; उसे पश्चिमी हिन्दी की एक शाखा या बोली मात्र स्वीकार किया है। फिर हिन्दुस्तानी भाषा का लक्षण आपने यह बताया है कि जिसमें न फ़ारसी ही के शब्दों की भरमार हो और न संस्कृत ही के---अर्थात् जो भाषा फारसी और नागरी दोनों लिपियों में लिखी जा सके वही हिन्दुस्तानी है। इसके बाद फ़ारसी शब्दों की अधिकता से परिपूर्ण भाषा का नाम आपने उर्दू और संस्कृत शब्दों से परिपूर्ण भाषा का नाम उच्च हिन्दी बताया है। परन्तु यह सब कर के भी जिस उर्दू को आपने फ़ारसी-मिश्रित भाषा बताया है उसीको हिन्दुस्तानी मान कर उर्दू या हिन्दुस्तानी बोलनेवालों की संख्या एक ही खाने में लिख दी है। आप ही के लिखे हुए लक्षण के अनुसार हिन्दुस्तानी भाषा उर्दू की कक्षा में नहीं शामिल की जा सकती। हिन्दुस्तानी चाहे जिस लिपि में लिखी जाय उसे अलग ही दिखाना चाहिए था। उर्दू के मुक़ाबले की भाषा तो आपके अनुसार संस्कृत-शब्द-पूर्ण हिन्दी हो सकती है। इस दशा में इस प्रकार के लक्षण बता कर भी---उर्द को हिन्दुस्तानी समझना, अथवा हिन्दु-