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साहित्यालाप

मदरसों की पुस्तकों की भाषा एक कर डालने की चेष्टा में सरकार को यद्यपि पूरी सफलता नहीं हुई, तथापि वह अपनी उद्देश-सिद्धि के लिये बराबर यत्न करती ही चली जा रही है---उसकी रगड़ बराबर जारी है। अब तक मर्दुमशुमारी के काग़ज़ात में हिन्दी और उर्दू, दोनों ही भाषायें बोलनेवालों की संख्या जुदा जुदा बताई जाती रही है। पर इस दफ़े, पिछली मनुष्य-गणना के समय, उसने इस भेद-भाव को एक-दम ही दूर कर दिया है। उसने हिन्दी को भी अद्धचन्द्र दे दिया है और उर्दू को भी। उन दोनों की जगह उसने “हिन्दुस्तानी" को दे दी है। सो अब सब लोगों को यह कल्पना कर लेनी चाहिए कि न इन प्रान्तों में कोई हिन्दी ही बोलनेवाला है और न उर्द ही बोलनेवाला । जो भापा या बोली यहां बोली जाती है वह"हिन्दुस्तानी" है । हिन्दुओं को अब हिन्दी भूल जाना चाहिए और मुसल्मानों को उर्दू । सरकार के लिए तो यह बहुत बड़े सुभीते की बात हुई, पर जो साहब समस्त भारत की मनुष्य-गणना पर आलोचनात्मक रिपोर्ट लिखेंगे या लिखी होगी उन पर क्या गुज़री होगी या गुज़रेगी, यह हमें अब तक नहीं मालूम हुआ; क्योंकि उनकी रिपोर्ट अब तक हमारे देखने में नहीं आई । बात यह है कि अन्य प्रान्तों की--विशेष करके बिहार और मध्य-प्रदेश---की मनुष्य-गणना के अध्यक्ष अपने अपने नक्शों में ज़रूर ही हिन्दी बोलने वालों की संख्या दिखावेंगे। क्योंकि अन्य सभी प्रान्तों में थोड़े बहुत हिन्दी बोलनेवाले ज़रूर ही निकलेंगे। इस दशा में उन सबका लेखा ज़रूर ही