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साहित्यालाप


पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। शासितों के कष्ट बढ़ते हैं, उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती। इस कारण द्वेष की नहीं तो औदासीन्य और अप्रीति की उत्पत्ति और वृद्धि होती है, जो शासकों के लिए बहुत ही हानिकारक है।

इस देश के भिन्न भिन्न प्रांतों में भिन्न भिन्न भाषायें प्रचलित हैं । शासक शुरू शुरू में उनसे प्रायः सवथा अनभिन्न रहते हैं। फल इसका बहुत ही विषमय होता है । बड़े बड़े अधिकारियों की बात जाने दीजिए छोटे छोटे अधिकारी भी तो हम लोगों की लिपि, भाषा, भावभङ्गी जानने का यत्न नहीं करते। इस कारण हम लोगों की दृष्टि में वे अपनेको उपहास का पात्र बनाते हैं । पर अपने अधिकार के मद में मत्त होने अथवा अपनी जाति की श्रेष्ठता के नशे से बेहोश रहने के कारण वे उस उपहास की परवा नहीं करते। परन्तु क्या इससे उनकी कुछ हानि नहीं होती? हानि होती है और बहुत होती है, जिसका अनुभव समय आने पर, इन्हें जरूर ही होता है।

हमारी भाषा और लिपि का काफी शान सम्पादन न करने के कारण ही हमारे नगरों, कसबों, गांवों, डाकखानों और स्टेशनों के नामों की जो दुर्दशा अधिकारियों ने की है और कर रहे हैं देखकर बहुत परिताप होता है। देहली या दिल्ली का डेलही,लखनऊ का लकनौ और मथुरा का मटरा कर डालनेवालों यही सुजान-शिरोमणि हैं। स्टेशनों पर तीसरे दरजे के मुसाफिरों के लिए बनाये गये पाखानों का नाम निर्देश कहीं कहीं केवल अंगरेजी भाषा में रहता है और रेल के तीसरे दरजे के डब्बों के