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साहित्यालाप


तक में रहनेवाले भारतवासियों के हृदयों में जागृत न कर देंगे तबतक आपके राजनैतिक मनोऽभिलाष पूरे तौर पर कदापि सफल होने के नहीं । क्या इस पृथ्वी की पीठ पर एक भी देश ऐसा है जहां शासनसम्बन्धी स्वराज्य तो है, पर मातृभाषा-सम्बन्धी स्वराज्य नहीं ? विजित देशों पर विजेता क्यों अपनी भाषा का भार लादते हैं ? प्रास्ट्रिया के जिन प्रान्तों पर इटली का अधिकार हो गया है वहां छल, बल और कौशल से क्यों इटालियन भाषा ठूंसो जा रही है ? जर्मनी क्यों अपने दलित देशों या प्रान्तों में अपनी ही भाषा का प्रभुत्व स्थापित करने का प्रचण्ड प्रयत्न कर चुका है ? क्यों अभी उसने उस दिन जर्मन अफ़सरों और कर्मचारियों को यह आज्ञा दी थी कि रूर-प्रान्त में फांसवालों के कहने से, खबरदार, अपनी भाषा छोड़ कर फ्रांस की भाषा का कदापि व्यवहार न करना ? मुंँह से जो शब्द निकालना जर्मन भाषा ही के निकालना । इसका एक मात्र कारण स्वराज्य और स्वभाषा का घना सम्बन्ध है। यदि भाषा गई तो अपनी जातीयता और अपनी सत्ता भी गई ही समझिए । बिना अपनी भाषा की नीव दृढ़ किये स्वराज्य की नीव नहीं दृढ़ हो सकती। जो लोग इस तत्व को समझते हैं वे मर मिटने तक अपनी भाषा नहीं छोड़ते । दक्षिणी आफरिक़ा में अपने अस्तित्वनाश का अवसर आ जाने पर भी, बोरों ने अपनी भाषा को अपने से अलग न किया ; हजार प्रयत्न करने पर भी उन्होंने वहां विदेशी भाषा के पैर नहीं जमने दिये, जिन में राष्ट्रीयता का भाव जागृत है, जो जातीयता