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वक्तव्य


से और शासन का प्रबन्ध भी आपने अलग अलग कर दिया। फिर सारे देश के शासन की एकसूत्रता के सम्पादनार्थ आपने एक बड़े कौंसिल या कार्यनिर्वाहक सभा और मन्त्रिमणडल की सृष्टि करके, उसमें हर प्रान्त के थोड़े थोड़े प्रतिनिधियों का समावेश किया। इस दशा में प्रान्तीय कौंसिलों और मन्त्रिमण्डलों का कार्य-निर्वाह तो प्रान्तिक भाषाओं के द्वारा हो सकेगा। पर, आप ही बताइए, बड़े कौंसिल और मन्त्रिमण्डल का काम किस भाषा में होगा ? अँगरेज़ी भाषा का तो नाम ही न लीजिए; उस दशा में उस भाषा का प्रयोग तो सर्वथा ही असम्भव होगा। क्योंकि प्रान्तिक प्रजा के ऐसे अनेक प्रतिनिधि वहां पहुंच सकेंगे जो अपनी भाषा छोड़ कर अन्य भाषा न समझ सकते होंगे और न बोल सकते होंगे।

अब मान लीजिए कि अकस्मात् कोई बड़े ही महत्व का और बड़ा ही आवश्यक काम आ गया और महामन्त्रियों को सारे देश के प्रतिनिधियों की सम्मति की आपेक्षा हुई । इस निमित्त बड़ी सभा या कौंसिल का एक विशेष अधिवेशन किया गया। उसमें महामात्य या सभापति कूटाक्षभट्ट, मन्त्रिप्रवर मङ्गलमूर्ति, ऐडमिरल बैनर्जी, फील्ड मार्शल फतेहजङ्ग, कमांडर-इन-चीफ बूटासिंह, ऐडजुटंट जनरल विक्रमादित्य, शिक्षा-सचिव नासिरी परराष्ट्र-सचिव आयंगर, वाणिज्य-मन्त्री रानडे और कानूनी मन्त्री देसाई आदि के साथ भिन्न भिन्न प्रान्तों के प्रतिनिधि मन्त्रणा करने बैठे। ऐसा दृश्य उपस्थित