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वक्तव्य

८-पुरातत्व विषयक साहित्य की आवश्यकता ।

दुनियां में ऐसी कितनी ही जातियां विद्यमान हैं जिनका भूतकाल बहुत हो उज्ज्वल था, पर जो सभ्यता की दौड़ में पाछे रह जाने से, अन्धकार के आवरण से आच्छादित हो गई हैं। ऐसी जातियों को यदि इस बात का ज्ञान करा दिया जाय कि वे कौन हैं और उनके पूर्व-पुरुष कैसे थे तो उनके हृदय में फिर उठने की प्रेरणा का प्रादुर्भाव हो सकता है । परन्तु जो यही नहीं जानता कि उसका भी कोई समय था- वह भी कभी अपनी सत्ता रखता था-वह अपने पूर्वजों की कीर्ति का पुनरुद्धार करने की चेष्टा क्यों करेगा ? जिसकी दृष्टि में जो चीज़ कभी थी ही नहीं उसे पाने की तो इच्छा भी, बिना किसी प्रबल कारण के, उसके हृदय में उत्पन्न ही न होगी। यों तो अपने पूर्वजों के कोर्ति-कलाप की रक्षा करना सभी का धर्म है ; पर गिरी हुई जातियों के लिए तो वह सर्वथा अनिवार्य ही है। उन्हें तो उस कीर्तिकलाप का सतत ही स्मरण करना चाहिए। पुरातन-वस्तुओं की प्राप्ति और रक्षा से ही इस प्रकार का स्मरण हो सकता है। इस रक्षा का साधन साहित्य को इतिहास-नामक शाखा का ही एक अङ्ग है । उसका नाम है पुरातत्त्व अथवा पुरातन वस्तुओं का ज्ञान, विवरण और विवेचन । कितने दुःख, कितने परिताप, कितनी लज्जा की बात है कि इतिहास के इस महत्त्वपूर्ण अङ्ग का हिन्दी में प्रायः सर्वथा ही अभाव है। इस अभाव ने हमारी बहुत बड़ी हानि की है। उसने तो हमें