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साहित्यालाप


अन्धा सा बना दिया है । हम अपने आपको भूल सा गये हैं;हमें अपने पूर्वजों के वल और विक्रम, विज्ञता और विद्वत्ता, कला-कुशलता और पौरुष आदि लोकोत्तर गुणों का विस्मरण सा हो गया है। घटना-चक्र में पड़ कर हम कुछ के कुछ हो गये हैं। हम हनीवाल और सीपियों के गुणगान करते हैं, हम‌ सीज़र और सलादीन की प्रभुता के पद्य सुनाते हैं ,हम ज़रक्सीज़ और अलेग्जांडर की चरितावली का कीर्तन करते है ! यहां तक कि हम गाँल और केल्ट, नार्मन और सैक्सनलागों की वंशावलियां तक कण्ठाग्र सुना सकते हैं । पर, हाय ! हम अपने चन्द्रगुप्त और अशोक के, हम अपने समुद्रगुप्त और स्कन्दगुप्त के, हम अपने शातकर्णी और पुलकेशी के, हम अपने हर्ष और अमोघवर्ष के इतिहास की मोटी मोटी बातें तक नहीं जानते । जिसके चलाये हुए संवत् का प्रयोग हम, प्रति दिन, करते हैं और जिसका उल्लेख हमें, धार्मिक कृत्य करते समय, सङ्कल्प तक में करना पड़ता है वह हमारा शकारि विक्रमादित्य कब हुआ और उसने इस देश के लिए क्या क्या किया, यह तक हम ठीक ठीक नहीं जानते ! इस आत्म-विस्मृति का भी कुछ ठिकाना है ! विदेशी बंशावलियां रटनेवाले हमारे हज़ारों नहीं, लाखों युवकों को यह भी मालूम नहीं कि इस कानपुर के आसपास का प्रान्त, हज़ार पांच सौ वर्ष पहले, किन किन नरेशों के शासन में रह चुका है। मौखरी वंश के महीपों की भी सत्ता कभी यहां थी, यह बात तो उनमें से शायद दो हो चार ने सूनी हो तो सुनी हो। फिर