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साहित्यालाप

११- समाचारपत्रों की नीति ।

समाचारपत्र और सामयिक पुस्तकें भी साहित्य के अन्तर्गत हैं। अतएव उनके विषय में भी मुझे कुछ निवेदन करना है। अब वह समय आया है जब जन-समुदाय अपनेको राजा से बढ़कर समझता है । वह अपने ही को राजस्थानीय जानता है। उसका कथन है कि जनता की सत्ता से ही राजा की सत्ता है; जनता ही की आवाज़ राजा या राज-पुरुषों का आयोजन और नियन्त्रण करती है। इस दशा में राजनैतिक और सामाजिक विषयों में दखल देनेवाली सामयिक पुस्तकों और समाचारपत्रों को चाहिए कि वे अपनेको जनता का मुख, जनता का वकील, जनता का प्रतिनिधि समझे अपने व्यक्तिगत अस्तित्व को भूल जायं। जो कुछ वे लिखें जनता ही के हित को लक्ष्य में रखकर लिखें; ईर्ष्याद्वष, वैमनस्य, स्वार्थ और व्यक्तिगत हानि लाभ की प्रेरणा के वशीभूत होकर एक सतर भी न लिखे। सत्यता के प्रकाशन को वे अपना परम धम्म समझे। जो समाचारपत्र जनता के हार्दिक भावों का प्रकाशन जान बूझ कर नहीं करते वे अपने ग्राहकों और पाठकों को धोखा देते हैं और अपने कर्तव्य से च्युत होते हैं। उनको चाहिए कि सत्यपरता से कभी विचलित न हो। जनसमुदाय से सत्य को छिपा रखना अपने व्यवसाय को कलङ्कित और सर्वसाधारण के साथ विश्वासघात करना है ।

सम्पादकीय लेखों और नोटों में सामयिक विषयों की