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वक्तव्य


करतो हुई, किसी दिन मुर्दा नहीं तो निर्जीव सी जरूर हो जाती है। दूसरी भाषाओं के शब्दों और भावों को ग्रहण कर लेने की शक्ति रखना ही सजीवता का लक्षण है। और जीवित भाषाओं का यह स्वभाव, प्रयत्न करने पर भी, परित्यक्त नहीं हो सकता, क्योंकि सजीव भाषायें नियन्त्रण करनेवालों की शक्ति की सत्ता के बाहर है।

हमारी हिन्दी सजीव भाषा है। इसीसे, सम्पर्क के प्रभाव से, उसने अरबी, फारसी और तुर्की भाषाओं तक के शब्द ग्रहण कर लिए हैं और अब अंगरेज़ी-भाषा के भी शब्द ग्रहण करती जा रही है। इसे दोष नहीं, गुण ही समझना चाहिए । क्योंकि अपनी इस ग्राहिका शक्ति के प्रभाव से हिन्दी अपनी वृद्धि ही कर रही है, हास नहीं । ज्यो ज्यों उसका प्रचार बढ़ेगा त्यों त्यो उसमें नये नये शब्दों का आगमन होता जायगा। क्या नियन्त्रण के किसी भी पक्षपाती में यह शक्ति है कि वह जातियों के पारस्परिक सम्बन्ध को तोड़ दे अथवा भाषाओं का सम्मिश्रण-क्रिया में रुकावट पैदा कर दे ? यह कभी सम्भव नहीं। हमें केवल यह देखते रहना चाहिए कि इस सम्मिश्रण के कारण कहीं हमारी भाषा अपनी विशेषता को तो नहीं खो रही-कहीं बीच बीच में अन्य भाषाओं के बेमेल शब्दों के योग से वह अपना रूप विकृत तो नहीं कर रही। मतलब यह कि दूसरोंके शब्द, भाव और मुहावरे ग्रहण करने पर भी हिन्दी हिन्दी ही बनी है या नहीं। बिगड़ कर कहीं वह और कुछ तो नहीं होता जा रही, बस।