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वक्तव्य


लिङ्ग में व्यवहार करते हैं। परन्तु यदि ज़िले के ज़िले और प्रान्त के प्रान्त उसे स्त्री-लिङ्ग में व्यवहार करें-और मैं सुनता हूं कि बिहार-प्रान्त में हज़ारों आदमी ऐसा करते भी हैं-तो वह उभय-लिङ्गी हो जायगा। न तो देहली, आगरे, लखनऊ, कानपुर और बनारसवालों ही को भगवती वाग्देवी ने इस बात का इजारा दे रक्खा है कि लिङ्गनिश्चय करने के वही अधिकारी हैं, और न किसी वैयाकरण ही को इस तरह का कोई अनुशासन-पत्र उससे मिला है। जिस शब्द का प्रयोग जिस लिङ्ग में लोग करेंगे वह उसी लिङ्ग का समझा जायगा। यदि दोनों लिङ्गों में वह बोला जाता होगा तो वह उभयलिङ्गी हो जायगा।

जितनी भाषायें हैं सब अपनी अपनी विशेषता रखती हैं। उनके शिष्ट लेखक जिस शब्द को जिस लिङ्ग का मान लेते हैं वही लिङ्ग उसका हो जाता है। Moon अर्थात् चन्द्रमा में क्या किसीने स्त्रीत्व का कोई चिह्न देखा है? फिर वह अंगरेज़ी-भाषा में क्यों स्त्री-लिङ्ग हो गया? अमेरिका, फ्रांस, इँगलैंड, जर्मनी आदि देशों और महादेशों में क्या स्त्रियां ही स्त्रियां रहती हैं? फिर वे स्त्री-लिङ्ग कैसे हो गये? इस तरह की विलक्षणता से शायद कोई भी भाषा खाली न होगी। संस्कृत-भाषा तो विलक्षणताओं की खान ही है। देखिए-

(१) पत्ति-शब्द पुल्लिङ्ग भी है और स्त्रीलिङ्ग भी।