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साहित्यालाप


का श्रम उठाते हैं तब अपनी निज की महाजनी-लिपि की सदोषता की और हमारा ध्यान क्यों नहीं जाता? इसका कारण मनुष्य-स्वभाव के सिवा और कुछ नहीं। उसे अपने दोष नहीं दिखाई देते।

महाजनी-लिपि से मेरा अभिप्राय उस लिपि से है जो मुंँड़िया कहाती है और जिसकी तृती इस कानपुर नगर के बाज़ार बाज़ार, महल्ले महल्ले, गली गली और दुकान दूकान बोल रही है। इस लिपि में लिखा गया-अजमेर गया--क्या " आज मर गया" नहीं पढ़ा जाता ? कलट्टर-गञ्ज-क्या " कोलटार-गञ्ज" या " कलट्टरी-गाज" नहीं हो जाता ? हालसो रोड-क्या "हलसा रोड़ा" या "दुलसी राँड़" नहीं बन जाता ? पर इतनी सदोषता होने पर भी हम लोगों ने कभी उसके परित्याग के लिए न सही, सुधार के लिए भी तो प्रयत्न नहीं किया ! यह कोई विदेशी-लिपि नहीं : यह तो देवनागरी लिपि ही का कटा-छँटा अमात्रिक रूप है। भाइयो, दूसरोंके दोष देखने के पहले नहीं, तो पीछे हो, अपने दोषों पर नज़र डालिए। कहा जा सकता है कि मात्राओं का झंझट न होने के कारण यह लिपि शीघ्रता से लिखी जाती है। इसीसे इसका प्रचार है। यदि यह उज़ ठीक भी हो, तो भी क्या इस इतने सुभीते के लिए इतनी दोषपूर्ण लिपि को आश्रय देना बुद्धिमानो का काम है ? यदि देवनागरी लिपि प्राय: निर्दोष हो, यदि उसको