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वक्तव्य


आश्रय देने से मातृभाषा-प्रेम जागृत होता हो और यदि उसे अपनाने से जातीयता, देशभक्ति और धार्मिकता की वृद्धि होती हो तो मुंँड़िया का स्थान क्या देवनागरी को न दे देना चाहिए ? अभ्यास बढ़ने से देवनागरी भी शीघ्रता से लिखी जा सकती है। पर यदि न भी लिखी जा सके तो भी क्या हमें अपनी जातीय लिपि का व्यवहार न करना चाहिए ? चीनी और जापानी लिपियों के ज्ञाता कहते हैं कि उनसे बढ़कर दोषपूर्ण और देर में लिखी जानेवाली लिपियां संसार में और नहीं ! पर क्या चीनी और जापानी महाजन और व्यवसायी उनका व्यवहार नहीं करते ? जिस अरबी-लिपि में तुर्की और फ़ारसी भाषायें लिखी जाती हैं उसका व्यवहार क्या मिश्र, अरब, फ़ारसी, सीरिया, तुर्की और अफ़गानिस्तान के व्यवसायियों ने छोड़ दिया है ? अतएव इस सम्मेलन में उपस्थित सज्जन यदि इस विषय में और कुछ न करना चाहें तो इतना ही मानलेने की कृपा कर दें कि मुँड़िया के बदले,धीरे धीरे, देवनागरी-लिपि का प्रयोग करना हा उचित है। लिपि-परिचय हो जाने से हिन्दी भाषा की अच्छी अच्छी पुस्तकें पढ़ने की ओर प्रवृत्ति हो सकती है। उपन्यास और काव्य पढ़ने से मनोरञ्जन हो सकता है; धार्मिक पुस्तकें पढ़ने से धर्म-ज्ञान बढ़ सकता है ; समाचारपत्र पढ़ने से विशेषज्ञता प्राप्त हो सकती है। व्यापार-विषयक पुस्तके पढ़ने से व्यापार-कौशल की वृद्धि हो सकती है।

भाइयो, ज्ञानार्जन का सब से बड़ा साधन पुस्तकें हैं । जो