का अनुवाद हिन्दी में कर डाला और टाइटिल पेज को अपने ही श्रीसम्पन्न नाम के सुन्दर वर्ण से समलकृत कर दिया, मूल पुस्तक के लेखक के नाम को अशुभङ्कर समझ कर उसका पूरा पूरा "बायकाट" कर डाला । ये सभी पुस्तके सरस्वती में
समालोचना के लिए आई, तो समालोचक ने जान बूझकर पाठकों को धोखा दिया। उसने यह तो लिख दिया कि वे अमुक अमुक भाषाओं को अमुक अमुक पुस्तकों के अनुवाद है; परन्तु यह न बताया कि अनुवादकों ने उन मूल पुस्तकों के कर्ताओं के नाम का बहिष्कार कर दिया है । इससे बड़ी हानि हुई। पाठक तो धोखे में रहे और चौर-चाणक्य अनुवादक मूँछों पर ताव देते हुए हिन्दी भाषा के उद्धारक बन बैठे। उनमें से एक आध तो “साहित्य-संसार" के सम्राट् तक बन गये और अवशिष्ट अनुवादक विद्वान (हाँ हाँ विद्वान ही नहीं, विद्वच्छिरोमणि) बने हुए हिन्दी के रिक्त
कोष को अपने ग्रन्थ-रत्नों से लबालब भरते चले जा रहे हैं । इन समालोचनाओं के लेखक की भीरुता को-नहीं. नहीं धूर्तता को--तो देखिए !उसने जान बूझ कर सव सर्व-साधारण के मतलब की सबसे बड़ी बात छिपा डाली । हमें तो ऐसी समालोचनाओं से सम्पूर्ण घृणा है। लीपापोती हमें ज़रा भी पसन्द नहीं। हमें ते! खरी समालोचनायें ही पसन्द हैं-ऐसी समालोचनायें जैसी कि इस समय कलकत्ते के एक साप्ताहिक पत्र में निकल रही हैं। वे समालोचनायें ही क्या, जिनको पढ़कर समालोचित ग्रन्थ के लेखक का प्रेरणा से गोरखों की पलटने, गढ़वालियों की
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विचार-विषय्येय